Friday, January 18, 2008

vi ) हज़रत सुल्तान आफरीन साहब (बड़े सरकार) की ज़ारत (बदायूँ)

हज़रत सुल्तान आरफीन साहब का जन्म 1215 ई० में यमन में हुआ था। यह अरब के शाही शानदान से संबंधित थे। बचपन से ही इनकी रुचि धार्मिक विषयों में अधिक थी। उम्र बढ़ने के साथ - साथ धार्मिक क्षेत्र में हज़रत साहब की रुचि बढ़ती गई जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने घर त्याग दिया और फकीर का जीवन व्यतीत करने लगे। बाद में हज़रत साहब अरब से हिन्दुस्तान रवाना हुए यहाँ आकर उन्होंने बदायूँ के निकट एक सूनसान स्थान पर रहना प्रारम्भ किया । लोक कहावत के अनुसार फ़कीर होने के उपरान्त हज़रत साहब में विशिष्ट प्रकार की दिव्य शक्ति विकसित हुई । इस दिव्य शक्ति के बल पर हज़रत साहब विभिन्न रोगों से ग्रसित मरीजों का इलाज करने लगे। शनै: शनै: उनके पास आने वाले मरीजों की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि होने लगी।
लोकप्रियता के इस क्रम में लोग उन्हें बड़े सरकार के नाम से सम्भोधित करने लगे। बड़े सरकार के बारे में एक लोक मान्यता अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसके अनुसार -- "एक बार एक ऐसा मरीज बड़े सरकार के पास आया , जिसका आधा जि पत्थर का हो गया था। बड़े सरकार ने उस मरीज के शरीर पर दृष्टि डाली। देखते ही देखते उसके शरीर का पत्थर मोम की तरह पिघलकर बह गया और वह मरीज दुरुस्त होकर वापस अपने घर चला गया।"बड़े सरकार का कहना था कि यदि कोई मरीज तीन दिनों में उनके इलाज से दुरुस्त नहीं होता, तो लोग उन्हें जिन्दा ही कब्र में दफन कर सकते हैं।
वर्तमान में बड़े सरकार की मज़ार बदायूँ में उसी स्थान पर मौजूद है जहाँ वह रहते थे और जहाँ बाद में उन्हें दफन किया गया था। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी लोगों में यह धारणा अत्यन्त प्रबल है कि बड़े सरकार की ज़ारत पर इबादत करने वाले की बड़े और असाध्य रोगों के रोगी भी ठीक हो जाते हैं। यहाँ देश - विदेश से हजारों की संख्या में मरीज आते हैं और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं।यहाँ आने वाले मरीजों में दिमागी मरीजो की संख्या ज्यादा होती है। इसके अतिरिक्त ऐसे व्यक्ति भी अपने इलाज के लिए यहाँ आते हैं दिन पर बुरी हवाओं का असर होता है । इस प्रकार के रोगियों का इलाज 40 दिन तक लगातार चलता है। इलाज की प्रक्रिया में मरीज को बड़े सरकार की मजार शरीफ से स्पर्श कराया जाता है। विभिन्न रोगों से ग्रस्त रोगी बड़े सरकार की ज़ारत के प्रांगण में बने स्थाई तथा अस्थाई आवासों में नि:शुल्क रहते हैं।पूर्णतया स्वस्थ हो जाने के उपरान्त यह रोगी अपने घरों को वापस चले जाते हैं।

vii ) हज़रत बदरुद्दीन शाह (छोटे सरकार) की ज़ारत (बदायूँ)
हज़रत बदरुद्दीन बड़े सरकार के छोटे भाई थे। इनको छोटे सरकार के नाम से प्रसिद्धि मिली। यह सुल्तान उल आरफीन के शिष्य थे। छोटे सरकार की रुचि भी बचपन से धार्मिक विषयों में थी। बड़े होकर यह भी अरब छोड़कर अपने भाई के भांति बदायूँ के निकट एक शान्त क्षेत्र में निवास करने लगे। छोटे सरकार को भी विशिष्ट दिव्य शक्ति प्राप्त थी। इन दिव्य शक्तियों के बारे में तरह- तरह की मान्यताएं प्रचलित है। एक मान्यता के अनुसार -- "एक बार चार व्यक्ति छोटे सरकार के पास आए और अपने गुरु से प्राप्त सोना उनको दिखाया जो उन्हें गुरु की सेवा करने के बदले में मिला था। छोटे सरकार ने उस सोने को कुँए में फेंक दिया। अब छोटे सरकार ने उन चारों व्यक्तियों को आदेश दिया कि वे बाल्टियों में उस कुएं का पानी भरकर लाएं। उन चारों ने ऐसा ही किया। अब छोटे सरकार ने अपनी दिव्य शक्ति का प्रयोग करते हुए चारों बाल्टियों में भरे पानी को सोने में परिवर्तित कर दिया । वे चारों व्यक्ति अत्यन्त प्रसन्न हुए और अपने घरों को लौट गए।"
छोटे सरकार की मृत्यु के पश्चात् उनके अनुयायियों ने उनकी मज़ार शरीफ का निर्माण कराया जो बदायूँ नगर के समीप स्थित है।एक मान्यता को अनुसार छोटे सरकार की मज़ार पर मुगल बादशाह अकबर भी आया था। अकबर ने यहाँ पुत्र प्राप्ति की मन्नत माँगी थी। यह मन्नत पूर्ण हुई और उसके यहाँ सलीम का जन्म हुआ। अकबर ने प्रसन्न होकर 700 बीघा जमान छोटे सरकार की दरगाह के नाम कर दी। आज भी देश विदेश से असंख्य लोग छोटे सरकार की दरगाह पर आते हैं और मनोकामनाएं माँगते हैं।इसके अतिरिक्त छोटे सरकार की दरगाह पर भी विभिन्न रोगों से ग्रसित रोगी अपने इलाज़ के लिए आते हैं । यहाँ मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों को विशेष लाभ मिलता है। छोटे सरकार की जारत पर बुरी हवाओं के प्रभाव से ग्रस्त लोग भी अपने इलाज के लिए आते हैं।
छोटे सरकार की ज़ारत पर इलाज कराने आये लोग (बदायूँ)

v ) हज़रत शाह बुलाकी साहब की ज़ारत (मुरादाबाद)

हज़रत शाह बुलाकी साहब का जन्म 1042 हिज़री संवत् में स्योहारा (जिला बिजनौर) में हुआ था। हज़रत साहब बचपन से ही बहुत प्रतिभाशाली थे। मदरसे में वह सदैव अपने सहपाठियों से अलग रहा करते थे। इनके सहपाठी इनको दीवाना और पागल कहकर चिढ़ाते थे। मदरसे में जब उनके उस्ताद ने जब इनसे विस्मिल्लाह शब्द बोलने को कहा , तब शाह बुलाकी साहब ने विस्मिल्लाह शब्द की व्याख्या अपने तरीके से की। इस पर उस्ताद चकित रह गए और उन्होंने समझ लिया कि यह बालक अत्यन्त असाधारण है तथा भविष्य में यह लोगों में ज्ञान का प्रकाश बिखेरेगा । हज़रत साहब ने मात्र सात वर्ष की आयु में कुरान का अध्ययन पूर्ण कर लिया था। आपको इस आयु में कुरान पूरा जुबानी याद था। शाह बुलाकी साहब को अपाहिजों , बेवाओं तथा निर्धनों की सहायता करने में बहुत संतुष्टि मिलती थी।
वह अपनी आत्मिक शान्ति के लिए अपाहिजों , बेवाओं तथा निर्धनों के घरों में सफाई इत्यादि का कार्य किया करते थे। जब साथ के लोगों ने इनका विरोध किया , तब यह मुरादाबाद आकर रहने लगे। उन्होंने मुरादाबाद में एक मस्जिद का निर्माण कराया (मोहल्ला चक्कर का मिलाक में)। आज भी इसी मस्जिद के निकट हज़रत शाह बुलाकी साहब की ज़ारत मौजूद है।

iii ) हज़रत शाह महबूबे इलाही का मज़ार शरीफ (रामपुर)

हज़रत शाह महबूबे इलाही, हज़रत हाफिज सैय्यद शाह कादरी के शिष्य थे। हज़रत शाह महबूबे इलाही ने भी लोगों को हिन्हू मुस्लिम एकता का संदेश दिया था।इनकी मज़ार रामपुर नगर में एक खूबसूरत इमारत के भीतर स्थित है। लोगों की मान्यता है कि यहाँ सच्चे दिल से माँगी हर मुराद पूर्ण होती है।लोक मान्यता है कि हज़रत शाह महबूबे इलाही की आत्मा अमर है और वह गरीब, आवश्यकतामन्द तथा तकलीफ से ग्रसित लोगों की फरियाद अवश्य सुनते हैं।
iv ) हज़रत अब्दुल्लाह शाह बगदादी का मज़ार शरीफ (रामपुर)रामपुर नगर में लगभग 200 वर्ष पूर्व हज़रत अब्दुल्लाह शाह बगदादी नामक महापुरुष हुए। यह दिव्य शक्ति से युक्त थे तथा इन्होंने भी सदैव हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिला। रामपुर नगर में स्थित इनकी ज़ारत पर बड़ी संख्या में लोग आते हैं। इन लोगों में हिन्हू तथा मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के लोग सम्मिलित होते हैं।

ii ) हज़रत जमाल उल्लाह कादरी का मज़ार शरीफ (रामपुर)

हज़रत हाफिज़ सैय्यद शाह ज़माल उल्लाह कादरी का जन्म लगभग 300 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गूजरवाला जिला में हुआ था।रामपुर के नवाब फैजुल्ला खाँ इनके मुरीद थे। हज़रत साहब पहले नवाब फैजुल्ला खाँ की सेना में कार्यरत थे। हज़रत साहब स्वभाव से अत्यन्त विनम्र थे। आपके रहने का ढ़ंग सादगी से परिपूर्ण था। हज़रत साहब की दयालु प्रवृति को इस दृष्टान्त से ही समझा जा सकता है कि फौज में काम करने के बदले में प्राप्त वेतन को यह गरीबों में बाँट देते थे। हज़रत हाफिज सैय्यद शाह ने अपने जीवन के दौरान कभी भी हिन्दू और मुसलमानों में भेद नहीं माना । ये हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। इनके बारे में लोक मान्यता है कि इन्हें विशेष ईश्वरीय शक्ति प्राप्त थी । एक लोक मान्यता के अनुसार --
"एक बार हज़रत सैय्यद शाह जमाल साहब कहीं जा रहे थे। कुछ शरारती लोगों ने हज़रत साहब को परेशान करने की योजना बनाई। योजना के अनुसार उन लोगों में से एक व्यक्ति धरती पर मृतक के समान लेट गया। उन लोगों ने मृतक समान लेटे हुए व्यक्ति के निकट बैठकर अल्लाह की इबादत करने हेतु हज़रत साहब से आग्रह किया। हज़रत साहब ने उन लोगों से पूछा कि मैं जिन्दा व्यक्ति के लिए इबादत कर्रूँ अथवा मृत व्यक्ति के लिए ? इस पर वह लोग बोले कि हमारा साथी मृत है , आप मृत व्यक्ति के लिए इबादत करें। यह सुनकर हज़रत साहब ने अल्लाह की इबादत की। इबादत के समाप्त होते ही मृतक के समान लेटा हुआ व्यक्ति वास्तव में मृत हो गया "।हज़रत हाफिज सैय्यद शाह कादरी के जीवन के सम्बन्धित ऐसी अनेक कथाएं हैं जो उनकी दिव्यता को प्रमाणित करती है। हज़रत साहब की मजार रामपुर नगर में एक अत्यन्त खूबसूरत इमारत में स्थित है। इस जारत पर इबादत करने वालों में हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रुप से आते हैं। लोगों की मान्यता है कि यहाँ माँगी गई हर मन्नत पूरी होती है। यदि सच्चे दिल से हज़रत साहब की ज़ारत पर सिर नवाया जाए, तो हर तकलीफ का अन्त होता है।

ix ) जामा मस्जिद (रामपुर)
रामपुर नगर में स्थित जामा मस्जिद खुदा की इबादत के लिए एक अत्यन्त पवित्र एवं प्रसिद्ध स्थल है। इस मस्जिद का निर्माण 1180 हिज़री संवत् 1176 ई०) में रामपुर के नवाब फैजउल्लाह खाँ ने करवाया था। कालान्तर में नवाब कल्वेअली खाँ ने 1297 हिज़री संवत् (1874 ई०)में इस मस्जिद का जीर्णोद्धार करवाया । इसके बाद 1331 हिज़री संवत् (1913 ई०) में पुन: इस मस्जिद का जीर्णोद्धार करवाया गया , जिसका श्रेय तत्कालीन नवाब हामिद अली खाँ को जाता है।
यह मस्जिद एक ऊँचे धरातल पर अत्यन्त बड़े प्रांगण में स्थित हैं।मस्जिद की मुख्य इमारत के ऊपर तीन विशाल गुम्बद तथा चार मीनारें अवस्थित हैं।

तीनों गुम्बदों के ऊपर आलीशान कलश चढ़े हुए हैं।मस्जिद की मुख्य इमारत के द्वार पर एक दो रुखा घण्टा लगा हुआ है जिसे लन्दन से मँगवाया गया था। रामपुर के जामा मस्जिद के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है। विभिन्न मुस्लिम त्यौहारों के अवसर पर असंख्य यहाँ नमाज अदा करते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यहाँ आकर सच्चे दिल से इबादत करने पर हर मुराद पूरी होती है।

मजारे आला हजरत (बरेली)

रुहेलखण्ड क्षेत्र में ऐसे अनेक मुस्लिम धार्मिक स्थल देखने को मिलते हैं , जिनके प्रति मुस्लिम तथा अन्य समप्रदाय के लोगों में गहरी आस्था है।इनमें से प्रत्येक स्थल की पृथक विशेषताएँ हैं, जो उस स्थल को अन्य स्थलों से अलग करती हैं। इन धार्मिक स्थलों में अग्रलिखित विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं मजारे आला हजरत (बरेली)
आला हज़रत बरेली नगर में हुए ऐसे व्यक्तित्व का नाम है ,जिसने ज्ञान और विद्वता का प्रकाश चारों ओर बिखेरा । लोकमान्यता के अनुसार आला हज़रत का ज्ञान रुपी दिव्य प्रकाश प्रत्यक्ष रुप से ईश्वर से प्राप्त हुआ था। आला हज़रत की पैदाइश 14 जून 1856 को बरेली के मुहल्ला जिसौली में हुई थी। बचपन से ही वह कुदरती ज्ञान से युक्त थे । आपने चार वर्ष की आयु में ही कुरान मज़ीद नाज़िरा का अध्ययन पूर्ण कर लिया था । तेरह वर्ष की आयु में आला हज़रत ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और दस्तीर फ़जीलत से नवाजे गए। आला हज़रत के बारे में यह कहा जाता है कि अल्लाह ताला ने अपने फज़ल से आपका सीना दुनिया के हर उलूम से भर दिया था। इन्होंने हर विषय पर किताबें लिखीं , जिनकी संख्या हजारों में हैं । आला हज़रत ने अपनी सम्पूर्ण जिंदगी बेवाओं और जरुरत मंदों की सेवा में व्यतीत की। आपके सारे कार्य सिर्फ अल्लाहताला के लिए थे। आपको किसी की तारीफ़ से कोई लेना- देना नहीं था। आपने दो बार (सन् 1878 ई० तथा 1906 में) हज की यात्रा की।

आला हज़रत की मज़ार शरीफ के ऊपर निर्मित गुम्बद (बरेली)
अपनी शिक्षाओं और उच्च विचारों के कारण आला हज़रत न केवल भारतवर्ष अपितु दूसरे देशओं में भी लोकप्रिय होने लगे। धीरे- धीरे आला हज़रत साहब के शिष्यों ओर अनुयायियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। आपके शिष्यों में हज़रत मौलाना हसन रज़ा खाँ हज़रत मौलाना मुहम्मद रज़ा खाँ , मौलाना हामिद रज़ा खाँ, मौलाना सैय्यद अहमद, अशरफ कछौछवी, मौलाना सैय्यद जफरुद्दीन आदि केनाम प्रमुख हैं। अक्टूबर सन् 1921 में आला हज़रत ने इस दुनिया से विदा ली। लेकिन वह दुनिया के लिए ईमान और धर्म का सन्देश देकर गए, जो आज तक लोगों के हृदय में प्रकाशवन है। आपने आम आदमी के लिए सन्देश दिया था -
"ऐ लोगों तुम प्यारे मुस्तफा के भोले भेड़े हो। तुम्हारे चारों ओर भेड़िए हैं। वह चाहते हैं कि तुम्हें बहकाएं । तुम्हे फ़ितना में डाल दें। तुम्हें अपने साथ जहन्न्म में ले जाएं। इनसे बचो और दूर भागो। ये भेड़िए तुम्हारे ईमान की ताक में हैं। इनके हमलों से अपने ईमान को बचाओ। "आला हज़रत में बहुत सारी खूबियां एक साथ थीं। आप एक ही वक्त में मफुस्सिर, मोहद्दिस, मुफ्ती, कारी, हाफिज़, शायर ,मुसननिफ ,अदीब, आलिम ,फाजिल, शैखतरीकत और मजुददि शरीयत थे। आला हज़रत में घमण्ड नाम की कोई चीज़ नहीं थी। यह आला हज़रत की बेमिसाल कोशिशों का नतीजा है कि आज सुन्नी आक़ाएद पर यकीन रखने वाले लोग सिर्फ बरेली में ही नहीं वरन् तमाम दुनिया में मौजूद हैं।
आला हज़रत का मज़ार शरीफ बरेली स्थित मोहल्ला सौदागरन की एक विशाल और सुन्दर इमारत में है। यह इमारत भव्य गुम्बदों और नक्काशी के कारण अत्यन्त सुन्दर और मनोहर प्रतीत होती है। आलाहजरत की मज़ार पर हिन्दू और मुसलमान समान रुप से इबादत करने आते हैं। लोगों की मान्यता है कि आला हज़रत साहब की आत्मा अमर है और इनकी मज़ार पर शीश नवाने से मुरादें पूर्ण होने के साथ -साथ हृदय में ज्ञान का प्रकाश जागृत होता है।

viii ) ख़ानकाहे आलिया नियाज़िया (बरेली)
खानकाहे आलिया नियाजिया चिश्तिया सिलसिले की एक अहम शाखा है। इस संस्था के पूर्ववर्ती सरकारों के बारे में यह मान्यता है कि वे सभी महान सूफी ख्वाज़ा गरीब नवाज़ अजमेरी के रुहानी उत्तराधिकारी थे। बरेली स्थित इस संस्था के संस्थापक कुतुबे आलम मदारे आज़म नियाज़ वेनियाज़ हज़रत शाह नियाज़ अहमद साहब थे। वह लगभग 275 वर्ष पूर्व बुखारा (पाकिस्तान) से अपने परिवार के सदस्यों के साथ बरेली आए थे। उन्होंने बरेली में सूफीवाद की शिक्षाओं का प्रचार - प्रसार किया।धीरे -धीरे उनकी शिक्षाएं देश -विदेश में फैलने लगी। हज़रत साहब मानवता और साम्प्रदायिक एकता के प्रबल समर्थक थे। वे न केवल धार्मिक विषयों के ज्ञाता थे , बल्कि उच्च कोटि के कवि और विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता भी थे।
कुतुबे आलम मदारे आज़म नियाज़ वेनियाज़ हज़रत शाह नियाज़ अहमद साहब की विद्वता का अनुमान एक दृष्टान्त से लगाया जा सकता है। 12 वर्ष की आयु में शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त जब आपको शिक्षा की उपाधि दी जाने लगी , जब आपने वह डिग्री लेने से मना कर दिया। हज़रत साहब ने कहा कि जब तक समस्त ज्ञानी बुजुर्ग मेरी परीक्षा नहीं लेते , तब तक मैं डिग्री स्वीकार नहीं कर्रूँगा। उनके ऐसा कहने पर विद्वान बुजुर्गों ने उनसे अत्यन्त गूढ़ प्रश्न पूछे । हज़रत शाह नियाज़ अहमद साहब ने सभी प्रश्नों का उत्तर अत्यन्त सहजता के साथ दिया। बुजुर्गों की सन्तुष्टि के उपरान्त ही आपने डिग्री स्वीकार की।
वर्तमान में हज़रत अहमद साहब की मज़ार बरेली के मोहल्ला ख्वाजा कुतुब में स्थित है। लोगों की मान्यता है कि हज़रत साहब की आत्मा अमर है और उनकी मज़ार पर इबादत करने से समस्त कष्टों से मुक्ति मिलती है। आपके मज़ार के बारे में एक आश्चर्यजनक लोक मान्यता यह है कि यहाँ आकर इबादत करने पर सपं , बिच्छू तथा अन्य विषैले जानवरों के काटने का असर स्वत: ही समाप्त हो जाता है। वर्तमान में प्रतिदिन इस तरह के असंख्य लोग आपकी मज़ार पर आते हैं। जिन्हें सपं या बिच्छू ने डसा है। आपकी मज़ार पर न केवल हिन्दुस्तान वरन् संसार के विभिन्न देशों से लोग आते हैं और इबादत करते हैं।
मुस्लिम धर्म में सूफीवाद ही एक ऐसी शाखा है जिसमें संगीत को रुहानी शुद्धी के माध्यम के रुप में अपनाया जाता है। कुतुबे आलम मदारे आज़म नियाज़ वेनियाज़ हज़रत शाह नियाज़ अहमद साहब की दरगाह पर प्रतिवर्ष (मार्च और नवम्बर माह में) भव्य संगीत सम्मोलनों का आयोजन किया जाता है। इन सम्मेलनों में शास्रीय संगीत की जानी - मानी हस्तियां शरीक होती हैं । अब तक लगभग 142 संगीतज्ञ यहाँ आ चुके हैं। इन संगीत सम्मेलनों में हज़ारों श्रोता रुहानी सुकून प्राप्त करते हैं।
xi ) बारा बुर्जी स्जिद (आँवला जिला बरेली)
आँवला तहसील में स्थित बारह बुर्जी मस्जिद मुसलमानों के लिए एक अहल महज़बी स्थान है। यह मस्जिद अपनी अनूठी वास्तुकला के कारण अत्यन्त आकर्षक व लोकप्रिय स्थान है। मस्जिद की मुख्य इमारत के ऊपर बने बारह विशाल गुम्बद इस मस्जिद की सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। इन्हीं गुम्बदों के कारण इस मस्जिद का नाम बारह बुर्जी मस्जिद पड़ा ।
मुसलमान लोग बारह बुर्जी मस्जिद में गहरी श्रद्धा रखते हैं। ईद इत्यादि अवसरों पर न केवल स्थानीय वरन् आस पास के क्षेत्रों के मुसलमान भी बड़ी संख्या में आकर इस मस्जिद में नमाज अदा करते हैं।

Thursday, January 17, 2008

नबी करीम (सल०) की चन्द हिदायतें

हर अच्छी बात सदका है - हजरत जाबिर (रजि०) से रिवायत है, कहते हैं कि नबी करीम (सल०) ने फरमाया कि हर भली बात सदका है। (बुखारी)
मारूफ :- अच्छी और भली बात जो शरीअत से साबित हो और उसके करने में सवाब हो, चाहे आदत व रिवाज उसके मुखालिफ हो या मवाफिक उसमें फर्ज, वाजिब, सुन्नते मोकिदा वगैर मोकिदा सब दाखिल है और हर वह जायज काम भी दाखिल है जो अल्लाह की रजा की खातिर किया जाए। अगर नेक नियत से न भी किया जाए और दूसरों को उससे फायदा पहुंच जाए तो भी मारूफ है।सदका :- वह जरा सी चीज जो इंसान सिर्फ अल्लाह तआला के लिए सच्चे दिल से देता है। उसमें भी फर्ज, वाजिब, सुन्नत, मुस्तहब सब चीजें दाखिल हैं। मिसाल के तौर पर समझिए कि जैसे हर सदका पर सवाब मिलता है नेक नियत से किए गए हर नेक काम पर सवाब मिलता है। इसलिए जिस गरीब के पास माल न हो वह नेक आमाल के जरिये सदके का सवाब हासिल कर सकता है।हदीस की तशरीह :- किसी छोटे से छोटे नेक काम को भी छोटा और हल्का न समझा जाए और मामूली से मामूली काम में या बात में कंजूसी न की जाए। हर नेकी को जो जाहिरन छोटी हो मगर सवाब के एतबार से बड़ी होती हैं। अभी कुछ दिन पहले हजरत मौलाना शाह अब्दुल गनी फूलपुरी (रह०) और हजरत मुही उस्सना शाह मौलाना इबरार उल हक मरकदा के खलीफा अंजल हजरत मौलाना शाह मुफ्ती मोहम्मद अब्दुल्लाह फूलपुरी ने यह इरशाद फरमाया कि आदमी अपने हिस्सों से बहुत कम वक्त में करोड़ों नेकियां कमा सकता है। हजरत के कहने का मंशा था कि इंसान कद्र करे कि उसके अल्लाह तआला ने किस कदर कीमती मशीन इन हिस्सों की शक्ल में अता फरमाई है कि उससे नेकियां कमाए। फरमाया कि अगर आदमी एक बार जबान से ÷सुब्हान अल्लाह' कह ले तो उसके बदले में अल्लाह तआला उस के लिए जन्नत में एक ऐसा पेड़ देते हैं जिसका साया एक घुड़सवार सौ साल की मुसाफत में पूरी कर सकता हैं एक बार सुब्हानअल्लाह कहने में न तो कुछ वक्त लगता है और न कोई परेशानी होती है, काम इस कदर हल्का है और सवाब इस कदर ज्यादा, अल्ला हो अकबर।एक हदीस में है कि हर तसबीह सदका है। नेकी का हुक्म करना और बुराई से रूकना सदका है। बीवी से मिलना सदका है। तिरमिजी शरीफ और इब्ने हुब्बान की रिवायत है कि मुसलमान से नर्मी के साथ मिलना भी सदका है। किसी भूले हुए नावाकिफ को रास्ता बता देना सदका है। रास्ते से पत्थर, कांटा, हड्डी या कोई भी तकलीफदेह चीज का हटा देना सदका है, दूसरे भाई के लिए डोल खाली छोड़ देना भी सदका है। इन हदीसों से मालूम होता है कि सिर्फ माल देना ही सदका नहीं है जो मालदारों का काम है बल्कि गरीब से गरीब भी बहुत से नेक कामों में या नेक बात कहने में सदका का सवाब पा सकता है। इसलिए गरीब लोग मायूस न हों कि वह सदका खैरात नहीं कर सकते। अल्लाह तआला उनके लिए भी यह बातें सदका व खैरात के मकाम और इसी कदर सवाब की अता फरमा देती हैं।नर्म मिजाजी :- हजरत अबू जर गफ्फारी (रजि०) से रिवायत है कहते हैं रसूल (सल०) ने फरमाया कि तुम किसी भी अच्छी बात को छोटा और मामूली न समझो अगरचे वह यह हो कि तुम अपने भाई (मुसलमान) से नर्मी के साथ मिलो।रावी :- अबू जर (रजि०) यह कुन्नियत है, नाम जनदब बिन जनादा है, बनी गफ्फार कबीले से हैं, इसलिए गफ्फारी मारूफ है, बड़े सहाबा में उनका शुमार होता है और बड़े जाहिद हैं, मुहाजिरीन में से हैं, कदीम उल इस्लाम हैं, बाज का कौल है कि आप पांचवें मुसलमान हैं इस्लाम के तरीके पर सबसे पहले आप ही ने नबी करीम (सल०) को सलाम किया था। इस्लाम लाने के बाद अपनी कौम बनी गफ्फार की तरफ लौट गए थे, गजवा-ए-खंदक के बाद मदीना आए बाद में जबदा में कयाम किया। बत्तीस हिजरी में खलीफा सालिस हजरत उस्मान गनी की खिलाफत के जमाने में वही वफात पाई। हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) ने आपके जनाजे की नमाज पढ़ाई और उसी दिन बाद में खुद हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) भी वफात पा गए।
तल्क :- कुछ रिवायतों में तलीक भी आया है इसके मायनी खुला हुआ जिसमें शिकन न पड़े जैसे हंसने के वक्त होता है, यानी हंसी खुशी के साथ।
हदीस की तशरीह :- किसी नेक काम का चाहे वह कितना ही मामूली सा हो, बजाहिर कितना ही आसान हो, बेमशक्कत हो, बेखर्च हो, उसको छोटा मामूली समझना महरूमी की बात है, इस पर सवाब मिलता है।
आखिरत का सवाब सारी दुनिया के माल व दौलत, ऐश व आराम, एजाज व इकराम से बढ़कर है, इसको मामूली न समझा जाए। नर्म मिजाजी का अमल किस कदर हल्का और आसान है, बेमशक्कत है, मगर सदका का सवाब रखता है। इसलिए इंसान यह न समझे कि बड़े बड़े काम तो वाकई काम हैं, मामूली बातें काम नहीं। दूसरे यह बात भी है कि हर एक नेक काम दूसरे नेक कामों का जरिया और वास्ता बन जाता है, इसलिए कोई मामूली काम मामूली नहीं होता, वह किसी बड़े नेक काम का बीज बन जाता है और बड़े काम का जरिया भी चाहे बजाहिर छोटा हो हकीकत में बड़ा ही है। इसलिए उसको छोटा और बेमायनी न समझा जाए। क्योंकि अगर इस मामूली से नेक काम को मामूली समझकर न किया तो किसी बड़े नेक काम से महरूमी का सबब बन जाता है। क्योंकि जिस तरह एक छोटा नेक काम किसी दूसरे बड़े काम का जरिया बनता है उसी तरह एक मामूली नेक काम से महरूमी किसी बड़े नेक काम से महरूमी का सबब बन जाता है। इसी तरह किसी छोटे से छोटे नेक और दीनी काम को हल्का समझ कर छोड़ा न जाए, अगर किसी से इख्तिलाफ भी हो तब भी मिलने जुलने और हिदायते रसूल पर अमल करने की बरकत से एक दिन आपस का इख्तिलाफ खत्म हो जाएगा इंशाअल्लाह।
मुफ्ती बिलाल अहमद

जकात इस्लाम का अहम सुतून है

इंसान की पैदाइश का मकसद अल्लाह तआला ने अपनी इबादत बयान किया है। अल्लाह का इरशाद है- ÷और हमने जिन्नात व इंसान को अपनी इबादत के लिए पैदा किया है' (अल कुरआन) यानी जो शख्स दुनियावी जिंदगी में अल्लाह की इबादत में मशगूल रहेगा वह अपनी जिंदगी के ऐन मकसद के मुताबिक जिंदगी गुजारने वाला होगा और उसकी कामयाबी यकीनी होगी। इसके बरअक्स जो शख्स दुनिया की इस चन्द रोजा जिंदगी में अल्लाह की इबादत में मशगूल न रहकर दूसरी चीजों में मसरूफ होगा वह यकीनन अपने मकसदे हकीकी से दूर जाने वाला होगा। गोया वह अपनी मंजिल से हट कर इद्दर-उद्दर भटकने वाला होगा।÷इबादत' क्योंकि इंसानों की जिंदगी का बुनियादी मकसद है। इसलिए अल्लाह तआला ने अपने रसूलों व नबियों के जरिये हर दौर में लोगों को उनकी जिंदगी के मकसदे हकीकी की याददहानी कराई। तमाम नबियों व रसूलों ने अल्लाह के एक होने और उसके माबूदे हकीकी होने की दावत दी। आखिर में हजरत मोहम्मद (सल०) को भेजा गया। आप (सल०) ने भी वहदानियत की आवाज बुलंद की और लोगों को ÷लाइलाह इल्लल्लाहो मोहम्मुदर रसूलल्लाह' की तरफ बुलाया। यानी अल्लाह के अलावा कोई इबादत के लायक नही और मोहम्मद (सल०) अल्लाह के रसूल है। आखिरी पैगम्बर (सल०) पर नाजिल होने वाले कलामे इलाही ÷कुरआने करीम' में इबादत की बाबत बहुत से मकामात पर तफसील के साथ बयान किया गया।
इंसान की तखलीक का मकसद क्योंकि अल्लाह की इबादत है। इसलिए हर तरह की इबादत का इंसानों को पाबंद बनाया गया। चाहे वह बदनी इबादत हो या माली इबादत या रूहानी इबादत। नमाज के जरिये बदनी इबादत का मकसद हासिल होता है, रोजा से रूहानी इबादत का मकसद हासिल होता और और जकात से माली इबादत का मकसद हासिल होता है और हज से बदनी, माली और रूहानी हर किस्म की इबादत का मकसद हासिल होता है। गोया अगर कोई शख्स सिर्फ बदनी इबादत में मशगूल रहता है और रूहानी इबादत नही करता तो इबादत का मकसद पूरा नही होता। इसलिए नमाज के साथ मुतअय्यना दिनों में रोजा रखना भी जरूरी है। ऐसे में बदनी व रूहानी इबादत के साथ माली इबादत के बिना भी इबादत की तकमील नही होती। इसलिए जो इसकी इस्तताअत रखते हैं उनके लिए जरूरी है कि वह जकात की अदायगी भी करें। ऐसे ही मामला हजे बैतुल्लाह का है कि अगर किसी के पास सफरे हज की इस्तताअत और खाने-पीने के अखराजात हों उस पर हजे बैतुल्लाह लाजिम हो जाता है यानी ऐसी इबादत करना जो बदन, माल और रूहानियत सबको समेटे हो।
नमाज, रोजा और हज की तरह ÷जकात' भी मुसलमानों पर फर्ज है मगर साहबे निसाब होना शर्त है। जकात के फर्ज होने के बावजूद भी अगर जकात न दी गई तो पूरा निजाम दरहम बरहम हो जाएगा। वह लोग जो गरीबी की हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं जिनके पास रोजी रोटी के हुसूल के जराये नही है जो अपाहिज व माजूर है जो अपने घर से दूर बहुत दूर है, जहां न उनका कोई दोस्त है न ही रिश्तेदार। जो अल्लाह के रास्ते में लड़ रहे हैं उनका क्या होगा? गरीबों और जरूरतमंदों का जो खासी तादाद दुनिया भर में है उन्हें सहारा देने के लिए लिए सिर्फ ÷जकात' का ही मुस्तहकम निजाम है। जकात की अदायगी अमीर लोगों का तआवुन करती है। उनके मालों व सामानों को पाक कर देती है तरह-तरह की परेशानियों से उन्हें निजात दिला देती है और उनकी रकम व दौलत को महफूज कर देती है। इसलिए अल्लाह तआला ने जकात के निजाम को फलाहयाबी का जरिया बताया है। अल्लाह तआला फरमाता है-÷बिला शुब्हा फलाहयाब हो गए ईमान वाले जो अपनी नमाजों में खुलूस अख्तियार करते हैं फुजूल की बातों से मुंह मोड़ते है और जकात के तरीके पर आमिल होते हैं। (कुरआन)जकात की एक अहम खासियत यह है कि यह माल व दौलत में बरकत का सबब है यानी जकात के अदा करने से माल घटता नही है। दूसरा इस पर जिस अज्र व सवाब का वादा किया गया है वह इंसान के तसव्वुर से ज्यादा है इसलिए जकात को कुरआन ने एक महफूज और घाटे से पाक तिजारत कहा है। अल्लाह का इरशाद है- ÷जो लोग अल्लाह की किताब की तिलावत करते है, नमाज कायम करते हैं, और जो कुछ हम ने उनको दिया उसमें से खुले छिपे खर्च करते है, वह इस तिजारत के उम्मीदवार है जिसमें घाटे का कोई अंदेशा नही। इसलिए कि अल्लाह उनको पूरा बदला देगा और अपने फजल से ज्यादा ही देगा यकीनन वह बड़ा ही दरगुजर करने वाला और बड़ा ही कद्रदान है। (सूरा फातिहा)
जकात हर उस मुसलमान पर फर्ज है जो साहबे निसाब हो और उस पर एक साल गुजर चुका हो। निसाब की मिकदार जरूरत के सामान के अलावा सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी या इसके बराबर रूपये पैसे होना है। जकात की मिकदार कुल माल में से चालीसवां हिस्सा यानी ढाई फीसद हो।समाज में बहुत से ऐसे लोग भी है जो जकात पूरी पाबंदी के साथ निकालते है और पूरी निकालते हैं। अल्लाह तआला उनको अज्र अजीम अता फरमाएगा। अल्लाह का इरशाद है- ÷जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में खर्च करते हैं उनके खर्च की मिसाल ऐसी है कि जैसे कि एक दाना बोया जाए और उससे सात बालियां निकलें और हर बाली में सौ दाने हों। इस तरह अल्लाह जिसके अमल को चाहता है, बढ़ा देता है वह फराखदसत और अलीम है।' (बकरा) मगर इस हकीकत से भी इंकार नही किया जा सकता है कि कुछ लोग जकात की अदायगी से जान चुराते हैं कुछ लोग जकात देते हैं मगर कम देते हैं जबकि कुछ लोग आजकल करके टालमटोल करते हैं ताकि उनको जकात ही न देनी पडे+ या फिर अदा करते है मगर नागवारी और तंगदिली के साथ, यह सारी बातें इंतिहाई खतरनाक हैं।जकात अदा न करने वाले के लिए दर्दनाक अजाब है। नागवारी या बुरा भला कहकर जकात देने से भले ही उसके जिम्मे से फर्जियत साकित हो जाती है लेकिन उससे कारोबार की सारी बरकत जाती रहती है।जकात क्योंकि अहम तरीन इबादत है। इसलिए इसको पूरे अदब व एहतियात के साथ अदा किया जाए। ऐसा न हो कि इसको गैर इस्लामी तरीके से दिया जाए कि इस पर खातिरख्वाह सवाब ही न मिल सके। जकात देते वक्त नियत को खालिस कर लिया जाए। इसमें किसी तरह की मिलावट बाकी न करे। जकात देने वाले के दिल में यह ख्याल होना चाहिए कि वह यह सब कुछ अल्लाह की रजा के लिए कर रहा है न कि किसी तरह के दिखावे के लिए। इसलिए जकात का मकसद अल्लाह की खुशनूदी हासिल करना ही तो है। जैसा कि कुरआन में बयान किया गया है ÷और जो कुछ तुम खर्च करते हो। इसीलिए तो करते है कि खुदा की खुशनूदी हासिल हो। (बकरा) जकात देते वक्त इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि जकात अपनी हलाल कमाई से दी जाए, यह नही कि हराम तरीके से कमाए हुए रूपयों को जकात के तौर पर अदा किया जाए। इस्लामी तालीमात ऐसा करने से मना करती है। नबी करीम (सल०) ने फरमाया- ÷अल्लाह पाक है और वह सिर्फ वही सदका कुबूल फरमाता है जो पाक माल से दिया गया हो।' (मुस्लिम) जकात की अदायगी के वक्त इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है कि जो माल जकात के तौर पर अदा किया जाए वह साफ सुथरा हो। यह न किया जाए कि छांट कर गला सड़ा माल दे दिया जाए। ऐसा करना बाइसें गुनाह है। अल्लाह का इरशाद है- ऐसा न हो कि (खुदा की राह में) चीजें छांटने लगो।' (बकरा)
मौलाना असरार उल हक

तौबा क्या है?

हदीस शरीफ में आया है कि गुनाहों से तौबा करने वाला ऐसा है कि गोया गुनाह नही किया।हमेशा गुनाहों में मुब्तला रहना और उनसे कुछ नेकी में आना यह काम शैतानों और नायब शैतानों का है और हमेशा खुदा तआला की फरमाबरदारी में रहना हमेशा अपने खालिक व मालिक के हुक्म से बाहर न जाना यह काम फरिश्तों का है। आदम और बनी आदम का काम अवामिर को बजा लाना और नवाही से बाज रहना है। अगर नफ्स व शैतान के अगवा से गुनाह सादिर व सरजद हो उससे तौबा करना। हदीस शरीफ में आया है कि बेहतर बनी आदम वह लोग है जो गुनाह के बाद तौबा करे। आदमी गुनाह से माखूज नही होता बल्कि तर्के तौबा से माखूज होता है और आदमी तौबा करने से ऐसा होता है जैसा कि मां के पेट से बच्चा पैदा हुआ हो या झाड़ से जैसे पत्ते गिरते हैं मगर शर्त इसमें यह है कि दिखावा और फरेब के नाम व निशान के वास्ते न हो सिर्फ अल्लाह के वास्ते हो तो वह तौबा बेशक कुबूल होती है। अल्लाह पाक की रहमत बहाना ढूंढती है और थोड़ी सी नेकी से उसके गुनाह बख्श देती है।तौबा से नूर मारफत ईमान पैदा होता है और आदमी उस नूर की रौशनी से देखता है कि गुनाह जहर कातिल है और जब वह देखता है कि गुनाह जहर कातिल है और उसने उस जहर को बहुत खाया है और अब हलाकत के नजदीक पहुंच गया है तो जरूर उसमें शर्मिदंगी और खौफ पैदा हो जाता है।जैसे वह आदमी जिसने जहर खाया हो, शर्मिदां होता है और डरता है और उस शर्मिदंगी की वजह से हलक में उंगली डालता है ताकि उल्टी कर दे और फिर उस पर उसकी तवज्जों दूर की तदबीर करता है ताकि उस जहर का जो असर पैदा हुआ है वह दूर हो जाए। इस तरह आदमी जब देखता है कि मैने (बुराई) का वह जहर आलूद शहद की तरह थी कि उस वक्त तो मीठा मालूम होता है गुनाहों पर शर्मिदां होता है और उसकी जान में खौफ की आग लग जाती है। वह अपने आप को हलाक व तबाह देखता है और उसमें ख्वाहिश और गुनाह की जो हिस होती है वह उस आग में जल जाती है और वह ख्वाहिश मसर्रत में बदल जाती है और वह पिछले गुनाहों की तलाफी का कसद व इरादा करता है और कहता है कि आइंदा कभी भी गुनाह के नजदीक न जाएगा और पहले अहले गफलत के पास बैठता था अब अहले मारफत की सोहबत में बैठता है।तौबा हकीकत में पशेमानी है और इसकी अस्ल मारफत ईमान का नूर है और इसके हालात का तब्दील कर देना और मासियत व मुखालिफत से तमाम हिस्से को बाज रखकर अल्लाह तआला की इबादत करना है।हजरत सैयदना अली करमुल्लाह फरमाते हैं कि हम लोगो के लिए दुनिया में कयामत तक रहने वाली चीज+ ईमान इस्तगफार है। हजरत जुनैद बगदादी फरमाते हैं कि तौबा का कमाल यह है कि दिल लज्जते गुनाह बल्कि गुनाह ही भूल जाए तौबा इस्तगफार बजाये खुद इबादत हो। सूफिया का इरशाद है कि हम लोग गुनाह करके तौबा करते हैं लेकिन खासाने खुदा इबादत करके तौबा करते हैं।अल्लाह तआला की रहमतों के हुसूल के लिए गुनाहगार गुनाहो से बाज आजाएं और अच्छे पारसा और नेक लोगों की सोहबत में रहे और अपनी नेकी को कम जाने और तौबा करते रहे। अल्लाह पाक से मगफिरत चाहना बन्दों के लिए सआदते अजीम है।डाक्टर सैयद उस्मान कादरी

कसम खाने से बचे

हजरत इब्ने उमर रजि० बयान करते है कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया- अल्लाह तआला तुम्हें इस बात से मना फरमाते है कि तुम अपने बाप दादा की कसम खाओ, किसी शख्स को (अगर) कसम खानी ही हो तो (उसे चाहिए कि) वह अल्लाह की कसम खाए या चुप रहे। (बुखारी, मुस्लिम)हजरत अब्दुर्रहमान इब्ने समरा बयान करते है कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया- न बुतों की कसम खाओ और न अपने बाप-दादा की।' (मुस्लिम)हजरत इब्ने उमर (रजि०) बयान करते हैं कि नबी करीम (सल०) इस तरह कसम खाया करते थे, कसम है दिलों को फेरने वाले की।' (बुखारी)हजरत इब्ने उमर (रजि०) बयान करते है कि उन्होंने एक शख्स को काबा की कसम खाते सुना तो फरमाया अल्लाह के सिवा किसी और की कसम न खाओ। मैंने नबी करीम (सल०) से सुना है कि जो शख्स अल्लाह तआला के सिवा किसी और की कसम खाए तो उसने कुफ्र किया या शिर्क किया। (तिरमिजी)हजरत अबू हुरैरा (रजि०) बयान करते हैं कि मैने नबी करीम (सल०) को फरमाते सुना- कसम की ज्यादती का रिवाज बरकत को खत्म कर देता है। (मुस्लिम व बुखारी)हजरत अबू कतादा बयान करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया कि तिजारत मे ज्यादा कसमें न खाओ। इसलिए कि ज्यादा कसमें खाना कारोबार को (तो) बढ़ाता है (मगर) बरकत खत्म कर देता है। (मुस्लिम)हजरत साबित इब्ने जहाक बयान करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया जो शख्स इस्लाम की तालीम के खिलाफ किसी दूसरे मजहब की झूटी कसम खाए तो वह ऐसा ही हो जाता है जैसा कि उसने कहा और किसी इंसान पर उस चीज की नज्र पूरी करना वाजिब नही। जिसका वह मालिक न हो और जिस शख्स ने (दुनिया में) अपने आप को किसी चीज (मसलन छुरी वगैरह) से हलाक कर लिया तो वह कयामत के दिन उसी चीज के अजाब में मुब्तला किया जाएगा।यानी अगर किसी ने छुरी घोंप कर खुदकुशी कर ली तो कयामत में उसके हाथ में छुरी दी जाएगी जिसको वह अपने जिस्म में घोपता रहेगा। और जिस शख्स ने किसी मुसलमान पर नाहक लानत की तो वह (अस्ल गुनाह के एतबार से) ऐसा ही है जैसा कि उसने उस मुसलमान को कत्ल कर दिया हो और उसी तरह जिस शख्स ने किसी मुसलमान पर कुफ्र की तोहमत लगाई तो गोया उसने उस मुसलमान को कत्ल किया और जो शख्स झूटा दावा करे ताकि उसके माल व दौलत में इजाफा हो तो अल्लाह तआला उस के माल व दौलत में कमी कर देगा। (बुखारी मुस्लिम)हजरत अब्दुल्लाह इब्ने उमरो बिन आस (रजि०) बयान करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया- बड़े गुनाह यह है। अल्लाह के साथ किसी को शरीक करना, वाल्दैन की नाफरमानी करना यमीन गमूस। एक रिवायत में है कि किसी ने पूछा- यमीन गमूस, किसे कहते हैं। आप ने इरशाद फरमाया- ÷झूटी कसम के जरिये किसी मुसलमान का माल हथिया लिया जाए।'(बुखारी, तिरमिजी, मुस्लिम)हजरत अबू इमामा (रजि०) बयान करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया जिस ने अपनी कसम के जरिये किसी मुसलमान भाई का माल हथिया लिया। उसने अपने ऊपर आग वाजिब कर ली और जन्नत को अपने ऊपर हराम कर लिया। लोगों ने पूछा ऐ खुदा के रसूल चाहे मामूली सी चीज हो। जवाब में आप (सल०) ने इरशाद फरमाया, हां, चाहे मामूली मिसवाक ही क्यों न हो। (मुस्लिम इब्ने माजा)तौजीह- अल्लाह को वास्ता और गवाह बनाकर लोगों में अपना एतमाद व एतबार बहाल करना और अपनी सच्चाई को साबित करना यह है कसम की हकीकत। कभी इसकी जरूरत भी पड़ती है इसलिए कसम खाने की मनाही नही बल्कि उसकी अहमियत व अजमत बाकी रखने की जरूरत है। इसलिए बार-बार उठते-बैठते कसम खानी नापसंदीदा है। हमारी तहजीब में यह बात घुस आई है कि मौका बमौका, बात-बात पर लोग कसम खाते हैं। तजुर्बा यह है कि लोग फिर ऐसे शख्स पर एतमाद नही करते और समाज में वह बेवकअत समझा जाता है। खरीद-फरोख्त में भी कसम का बहुत रिवाज है। यह भी नामुनासिब काम है। झूटी कसम खाने में दो ऐब हैं एक तो झूट और दूसरे उसके जाहिरी नतीजे में किसी का माल गसब हो। इसलिए इस्लाम ने दुनिया व आखिरत में इस पर अजाबे शदीद की निशानदेही की है और तफसीलात और एहकामे कसम के लिए फकही किताबों की तरफ गौर करें। बहरहाल हर मुमकिन कसम खाने से परहेज करें। मजबूरी में इसकी गुंजाइश है मगर शरई तरीके पर अमल करें।

अपने इल्म पर अमल कर लो

फकीह कुदसी (रह०) अपनी सनद के साथ हजरत अनस बिन मालिक (रजि०) से रिवायत करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने फरमाया कि उलेमा रसूलों के अमीन होते हैं यानी अम्बिया (अलै०) की तालीमात को दयानत व अमानत के साथ लोगों तक पहुंचाने वाले होते हैं जब तक कि अमीरों व सुल्तानों से इख्तिलात (दोस्ती) न रखे और दुनियादारों में न पड़जाएं यानी दुनिया उनके कल्ब में न घुस जाए और जब उनमें दुनियादारी आ जाएगी तो बजाये अमीन होने के खाइन (बददियानत) ले जाएंगे उस वक्त उनसे दूर रहो और उनकी सोहबत से परहेज करो।हजरत अबुल दरदा (रजि०) से रिवायत है कि इंसान आलिम नही बनता जब तक कि मुतअल्लिम न हो। इसी तरह वह आलिम नही होता जब तक वह इल्म पर अमल न करे। उन्हीं से रिवायत है फरमाते है कि जो शख्स इल्म न हासिल करे जाहिल हो उस पर एक बार लानत और जो इल्म हासिल करके उस पर अमल न करे उस पर सात बार लानत।उन्ही से रिवायत है कि मुझे इसका अंदेशा और खौफ नही कि कल कयामत के दिन मुझ से सवाल हो कि ऐ अमीमर! (अवीमर उमर की तसगीर है हजरत अबुल दरदा का नाम उमर था) तूने क्या सीखा हां इसका खौफ जरूर है कि कल को मुझ से पूछा जाए कि ऐ अवीमर! तूने अपने इल्म पर कितना अमल किया।सैयदना ईसा बिन मरियम (अलै०) से रिवायत है कि जिस शख्स ने इल्म हासिल किया और अपने इल्म पर अमल भी किया वह आसमान के लोगों में अजीम शुमार किया जाता है।हजरत उमर (रजि०) से रिवायत है कि आप ने अब्दुल्लाह बिन सलाम से दरयाफ्त फरमाया कि इल्म वाले कौन लोग शुमार होते है? उन्होंने फरमाया जो लोग कि अपने इल्म पर अमल करते है वह है। हकीकत में अहले इल्म फिर पूछा कि कौन सी खसलत आम लोगों की नजरों से गिरा देती है? फरमाया कि लालच और तमाअ।हजरत ईसा बिन मरियम से मरवी है कि अंधा किस चीज के जरिये खुद को दूसरों के धक्के से बचा सकता है। यही ना कि चिराग उसके हाथ में होता कि दूसरे आंख वाले उसको देख ले और किनारे से गुजर जाएं और देखो अंधेरे घर में क्या चीज नफा बख्श होती है? चिराग ही ना जो किसी ताक वगैरह पर रखा हुआ हो। इसी तरह से समझो कि तुम को बेवकूफी, बेकद्री और बेइज्जती से हिकमत ही बचा सकती है लेकिन तुम पर अफसोस कि तुम उसको सीखते ही नही।हजरत ईसा (अलै०) से यह भी मरवी है कि दुनिया में देखो कितने पेड़ मौजूद हैं। सब तो फलदार नही होते। इसी तरह कितने उलेमा मौजूद हैं लेकिन हर एक तो मुर्शिद व रहनुमा नही होता और फल भी कितने होते हैं मगर हर एक तो उनमें से मीठा नही होता। इसी तरह देखो उलूम भी किस कदर कसरत से पाए जाते हैं लेकिन हर इल्म तो नफा बख्श नही दुआ करता।हजरत अवजाई (रह०) फरमाते हैं कि जो शख्स अपने इल्म पर अमल कर लेता है तो अल्लाह तआला उसको मजीद इल्म अता फरमा देते हैं।हजरत सहल (रह०) बिन अब्दुल्लाह फरमाते हैं कि लोग तमाम के तमाम मुर्दा हैं सिवाये उलेमा के और सारे के सारे मस्त और नशे की हालत में है सिवाये उनके जो इल्म पर अमल करने वाले हैं और इल्म पर अमल करने वाले भी सब मगरूर होते हैं या धोके में पड़े हुए हैं बजुज मुख्लिसीन के और अहले अख्लास बड़े खतरे में रहते है कि कब शैतान अजब व रिया के जरिये उनके अखलास को खत्म कर दे।नबी करीम (सल०) से मरवी है कि आप ने फरमाया कि हर आलिम लायके मोहब्बत नही है, सिवाये इसके जो पांच चीजों से तुम को रोके और पांच चीजों की तरफ तुम को बुलाए। शक से निकाल कर यकीन की तरफ बुलाए, तकब्बुर से निकाल कर तवाजे की तरफ बुलाए, अदावत से रोके और नसीहत और खैरख्वाही की तरफ बुलाए, रिया से बचाये और अखलास की तरफ बुलाए और दुनिया की मोहब्बत और उसी तरफ रगबत करने से निकाले और तुम को जुहद की तालीम और उसके हासिल करने की तरगीब दे।हजरत अली इब्ने अबी तालिब (रजि०) से मरवी है आप ने फरमाया कि जब कोई आलिम अपने इल्म पर अमल न करेगा तो जाहिल उससे कुछ सीखने और हासिल करने से बचेगा। इसलिए आलिम जब खुद ही अपने इल्म पर अमल न करेगा तो इल्म न उसके लिए नाफे होगा न दूसरो के लिए, चाहे कितने ही बोझ इल्म के जमा किए हो। फरमाया कि यह इसलिए कहता हूं कि मुझे यह बात पहुंची है कि बनी इस्राईल में से एक शख्स, उसी बडे+ संदूक इल्म की किताबों को जमा कर रखा था। अल्लाह तआला ने उस जमाने के नबी पर वही भेजी कि इस आलिम से कहो कि अगर तुम इतना ही इल्म और जमा कर लो तब भी तुम को नफा न देगा जब तक कि तुम इन तीन बातों पर अमल न कर लो। अव्वल यह कि दुनिया की मोहब्बत छोड़ दो क्योंकि यह मोमिनीन का हकीकी घर नही है। दूसरे यह कि शैतान का साथ छोड़ दो।इसलिए कि वह मोमिनीन का दोस्त नही है। तीसरे यह कि मुसलमान को तकलीफ न पहुंचाओ क्योंकि यह मोमिनीन का काम नही है और इल्म के खिलाफ है।हजरत सुफियान बिन वबीना फरमाते है कि लोगों के लिए जाहिर होना ऐब की बात है। इसलिए जो शख्स अपने इल्म पर अमल कर लेता है वह इल्म वाला है और आलिम कि अमल न करे वह जाहिल है।रिवायत में आता है कि फरिश्ते तीन लोगों के हाल पर ताज्जुब करते है। एक तो बेअमल आलिम पर जो लोगों से ऐसी बातें बयान करता हो कि उसका उस पर अमल न हो। दूसरे फासिक की कब्र पर कि खूब पुख्ता और गेज वगैरह से बनी हो और अन्दर उस पर खुदा अजाब हो रहा हो। तीसरे काफिर का जनाजा जो नक्श व निगार और रेशम और फूल से खूब आरास्ता हो और आगे जो हश्र होना है वह जाहिर है।कहा गया है कि सबसे ज्यादा हसरत कयामत के दिन तीन लोगों को होगी। एक वह आका जिसका गुलाम नेक व सालेह हो कि गुलाम तो अपनी सलाह की वजह से जन्नत में दाखिल हो जाएगा और आका जहन्नुम में दाखिल किए जाएंगे। दूसरा वह शख्स जिसने माल जमा किया हो लेकिन उसमे से अल्लाह तआला के हुकूक को न अदा किया हो। यानी जकात वगैरह न दिया हो और मर गया हो और उसका माल जिन वारिसों को मिला उन्होंने उसको अल्लाह की राह में खर्च किया तो यह वारिस तो निजात पाएंगे और जिसने माल जमा किया था वह दोजख में जाएगा।तीसरा यही बेअमल आलिम जिसने लोगों को नसीहत की। लोग तो अमल करके जन्नत में चले गए और खुद यह आलिम बेअमल दोजख में गया। एक शख्स ने हजरत हसन बसरी (रह०) से कहा कि हमारे फकहा तो यह फरमाते हैं। हजरत हसन (रह०) ने फरमाया कि मियां कभी किसी फकीह को देखा भी है? फकीह वह होता है जो दुनिया से जाहिद हो, आखिरत में रागिब हो, अपने गुनाहों पर जिसकी नजर हो, अपने रब की इबादत पर जुटा हो। कहा गया है कि जब ऐसा वक्त आ जाए कि उलेमा हलाल माल के जमा करने लग जाएं तो अवाम को मुश्तबा चीजों के खाने में डर न रहेगा और जब उलेमा मुश्तबा माल खाने लगेंगे फिर तो अवाम हराम माल के इस्तेमाल से भी न रूकेंगे और जब उलेमा हराम खाने लगेंगे तब तो अवाम काफिर ही हो जाएंगे।फकीह अबुल लैस समरकंदी (रह०) इसकी शरह में फरमाते हैं कि यह इसलिए कि जब उलेमा माल जमा करने लगेंगे तो अवाम भी उनकी नकल करेंगे और इल्म उनको होगा नही। इसलिए हराम माल भी जमा कर लेंगे और जब उलेमा हराम से न बचेंगे तो अवाम भी उनकी तकलीद करेंगे और इल्म न होने से उसको हलाल समझेंगे और कुफ्र में मुब्तला हो जाएंगे।अब्दुर्रहमान जामी

अपने इल्म पर अमल कर लो

फकीह कुदसी (रह०) अपनी सनद के साथ हजरत अनस बिन मालिक (रजि०) से रिवायत करते हैं कि नबी करीम (सल०) ने फरमाया कि उलेमा रसूलों के अमीन होते हैं यानी अम्बिया (अलै०) की तालीमात को दयानत व अमानत के साथ लोगों तक पहुंचाने वाले होते हैं जब तक कि अमीरों व सुल्तानों से इख्तिलात (दोस्ती) न रखे और दुनियादारों में न पड़जाएं यानी दुनिया उनके कल्ब में न घुस जाए और जब उनमें दुनियादारी आ जाएगी तो बजाये अमीन होने के खाइन (बददियानत) ले जाएंगे उस वक्त उनसे दूर रहो और उनकी सोहबत से परहेज करो।हजरत अबुल दरदा (रजि०) से रिवायत है कि इंसान आलिम नही बनता जब तक कि मुतअल्लिम न हो। इसी तरह वह आलिम नही होता जब तक वह इल्म पर अमल न करे। उन्हीं से रिवायत है फरमाते है कि जो शख्स इल्म न हासिल करे जाहिल हो उस पर एक बार लानत और जो इल्म हासिल करके उस पर अमल न करे उस पर सात बार लानत।उन्ही से रिवायत है कि मुझे इसका अंदेशा और खौफ नही कि कल कयामत के दिन मुझ से सवाल हो कि ऐ अमीमर! (अवीमर उमर की तसगीर है हजरत अबुल दरदा का नाम उमर था) तूने क्या सीखा हां इसका खौफ जरूर है कि कल को मुझ से पूछा जाए कि ऐ अवीमर! तूने अपने इल्म पर कितना अमल किया।सैयदना ईसा बिन मरियम (अलै०) से रिवायत है कि जिस शख्स ने इल्म हासिल किया और अपने इल्म पर अमल भी किया वह आसमान के लोगों में अजीम शुमार किया जाता है।हजरत उमर (रजि०) से रिवायत है कि आप ने अब्दुल्लाह बिन सलाम से दरयाफ्त फरमाया कि इल्म वाले कौन लोग शुमार होते है? उन्होंने फरमाया जो लोग कि अपने इल्म पर अमल करते है वह है। हकीकत में अहले इल्म फिर पूछा कि कौन सी खसलत आम लोगों की नजरों से गिरा देती है? फरमाया कि लालच और तमाअ।हजरत ईसा बिन मरियम से मरवी है कि अंधा किस चीज के जरिये खुद को दूसरों के धक्के से बचा सकता है। यही ना कि चिराग उसके हाथ में होता कि दूसरे आंख वाले उसको देख ले और किनारे से गुजर जाएं और देखो अंधेरे घर में क्या चीज नफा बख्श होती है? चिराग ही ना जो किसी ताक वगैरह पर रखा हुआ हो। इसी तरह से समझो कि तुम को बेवकूफी, बेकद्री और बेइज्जती से हिकमत ही बचा सकती है लेकिन तुम पर अफसोस कि तुम उसको सीखते ही नही।हजरत ईसा (अलै०) से यह भी मरवी है कि दुनिया में देखो कितने पेड़ मौजूद हैं। सब तो फलदार नही होते। इसी तरह कितने उलेमा मौजूद हैं लेकिन हर एक तो मुर्शिद व रहनुमा नही होता और फल भी कितने होते हैं मगर हर एक तो उनमें से मीठा नही होता। इसी तरह देखो उलूम भी किस कदर कसरत से पाए जाते हैं लेकिन हर इल्म तो नफा बख्श नही दुआ करता।हजरत अवजाई (रह०) फरमाते हैं कि जो शख्स अपने इल्म पर अमल कर लेता है तो अल्लाह तआला उसको मजीद इल्म अता फरमा देते हैं।हजरत सहल (रह०) बिन अब्दुल्लाह फरमाते हैं कि लोग तमाम के तमाम मुर्दा हैं सिवाये उलेमा के और सारे के सारे मस्त और नशे की हालत में है सिवाये उनके जो इल्म पर अमल करने वाले हैं और इल्म पर अमल करने वाले भी सब मगरूर होते हैं या धोके में पड़े हुए हैं बजुज मुख्लिसीन के और अहले अख्लास बड़े खतरे में रहते है कि कब शैतान अजब व रिया के जरिये उनके अखलास को खत्म कर दे।नबी करीम (सल०) से मरवी है कि आप ने फरमाया कि हर आलिम लायके मोहब्बत नही है, सिवाये इसके जो पांच चीजों से तुम को रोके और पांच चीजों की तरफ तुम को बुलाए। शक से निकाल कर यकीन की तरफ बुलाए, तकब्बुर से निकाल कर तवाजे की तरफ बुलाए, अदावत से रोके और नसीहत और खैरख्वाही की तरफ बुलाए, रिया से बचाये और अखलास की तरफ बुलाए और दुनिया की मोहब्बत और उसी तरफ रगबत करने से निकाले और तुम को जुहद की तालीम और उसके हासिल करने की तरगीब दे।हजरत अली इब्ने अबी तालिब (रजि०) से मरवी है आप ने फरमाया कि जब कोई आलिम अपने इल्म पर अमल न करेगा तो जाहिल उससे कुछ सीखने और हासिल करने से बचेगा। इसलिए आलिम जब खुद ही अपने इल्म पर अमल न करेगा तो इल्म न उसके लिए नाफे होगा न दूसरो के लिए, चाहे कितने ही बोझ इल्म के जमा किए हो। फरमाया कि यह इसलिए कहता हूं कि मुझे यह बात पहुंची है कि बनी इस्राईल में से एक शख्स, उसी बडे+ संदूक इल्म की किताबों को जमा कर रखा था। अल्लाह तआला ने उस जमाने के नबी पर वही भेजी कि इस आलिम से कहो कि अगर तुम इतना ही इल्म और जमा कर लो तब भी तुम को नफा न देगा जब तक कि तुम इन तीन बातों पर अमल न कर लो। अव्वल यह कि दुनिया की मोहब्बत छोड़ दो क्योंकि यह मोमिनीन का हकीकी घर नही है। दूसरे यह कि शैतान का साथ छोड़ दो।इसलिए कि वह मोमिनीन का दोस्त नही है। तीसरे यह कि मुसलमान को तकलीफ न पहुंचाओ क्योंकि यह मोमिनीन का काम नही है और इल्म के खिलाफ है।हजरत सुफियान बिन वबीना फरमाते है कि लोगों के लिए जाहिर होना ऐब की बात है। इसलिए जो शख्स अपने इल्म पर अमल कर लेता है वह इल्म वाला है और आलिम कि अमल न करे वह जाहिल है।रिवायत में आता है कि फरिश्ते तीन लोगों के हाल पर ताज्जुब करते है। एक तो बेअमल आलिम पर जो लोगों से ऐसी बातें बयान करता हो कि उसका उस पर अमल न हो। दूसरे फासिक की कब्र पर कि खूब पुख्ता और गेज वगैरह से बनी हो और अन्दर उस पर खुदा अजाब हो रहा हो। तीसरे काफिर का जनाजा जो नक्श व निगार और रेशम और फूल से खूब आरास्ता हो और आगे जो हश्र होना है वह जाहिर है।कहा गया है कि सबसे ज्यादा हसरत कयामत के दिन तीन लोगों को होगी। एक वह आका जिसका गुलाम नेक व सालेह हो कि गुलाम तो अपनी सलाह की वजह से जन्नत में दाखिल हो जाएगा और आका जहन्नुम में दाखिल किए जाएंगे। दूसरा वह शख्स जिसने माल जमा किया हो लेकिन उसमे से अल्लाह तआला के हुकूक को न अदा किया हो। यानी जकात वगैरह न दिया हो और मर गया हो और उसका माल जिन वारिसों को मिला उन्होंने उसको अल्लाह की राह में खर्च किया तो यह वारिस तो निजात पाएंगे और जिसने माल जमा किया था वह दोजख में जाएगा।तीसरा यही बेअमल आलिम जिसने लोगों को नसीहत की। लोग तो अमल करके जन्नत में चले गए और खुद यह आलिम बेअमल दोजख में गया। एक शख्स ने हजरत हसन बसरी (रह०) से कहा कि हमारे फकहा तो यह फरमाते हैं। हजरत हसन (रह०) ने फरमाया कि मियां कभी किसी फकीह को देखा भी है? फकीह वह होता है जो दुनिया से जाहिद हो, आखिरत में रागिब हो, अपने गुनाहों पर जिसकी नजर हो, अपने रब की इबादत पर जुटा हो। कहा गया है कि जब ऐसा वक्त आ जाए कि उलेमा हलाल माल के जमा करने लग जाएं तो अवाम को मुश्तबा चीजों के खाने में डर न रहेगा और जब उलेमा मुश्तबा माल खाने लगेंगे फिर तो अवाम हराम माल के इस्तेमाल से भी न रूकेंगे और जब उलेमा हराम खाने लगेंगे तब तो अवाम काफिर ही हो जाएंगे।फकीह अबुल लैस समरकंदी (रह०) इसकी शरह में फरमाते हैं कि यह इसलिए कि जब उलेमा माल जमा करने लगेंगे तो अवाम भी उनकी नकल करेंगे और इल्म उनको होगा नही। इसलिए हराम माल भी जमा कर लेंगे और जब उलेमा हराम से न बचेंगे तो अवाम भी उनकी तकलीद करेंगे और इल्म न होने से उसको हलाल समझेंगे और कुफ्र में मुब्तला हो जाएंगे।अब्दुर्रहमान जामी

किसे मिलता है दहशतगर्दी का फायदा


टेलीविजन और रेडियों पर अक्सर एक प्रोडक्ट का इश्तेहार आता है जिसमें बैकग्राउण्ड आवाज सुनाई देती है, ÷नाम ही काफी है।' लगता है कि किसी एडवरटाइजिंग कम्पनी का तैयार किया हुआ यह जुम्ला अब भारतीय जनता पार्टी और पुलिस ने दहशतगर्दी के मामलात में मुसलमानों पर पूरी तरह चस्पा कर दिया है। मुल्क के किसी भी कोने में दहशतगर्दी का कोई वाक्या पेश आते ही पुलिस बगैर कोई ताखीर किए सीद्दे एलान कर देती है कि इस वाक्ये में फलां ग्रुप का हाथ है, फिर कुछ मुस्लिम नाम मीडिया के जरिए मुल्क में फैला देती है। वाक्ये की तहकीकात शुरू होने के सालों बाद तक जहां कही कोई क्रिमिनल मुसलमान पुलिस के हाथों चढ़ता है तो यह एलान हो जाता है कि यह दहशतगर्द है और फलां जगह हुए बम द्दमाकों का मास्टर माइण्ड भी यही है। यह सिलसिला सालों चलता है तो भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की दीगर तंजीमों को आम हिन्दुओं में आम मुसलमानों के लिए नफरत का माहौल पैदा करने का मौका भी मिलता रहता है। सालों पहले मालेगांव की मस्जिद में बम द्दमाका हुआ था। अब तक मुल्क के मुख्तलिफ हिस्सों में पुलिस के जरिए जबरदस्ती फंसाए गए दर्जन भर से भी ज्यादा मुस्लिम नौजवानो को मालेगांव बम द्दमाके का मास्टर माइण्ड करार दिया जा चुका है। बम द्दमाकों के बाद पुलिस और मुख्तलिफ रियासतों की एसटीएफ चार, छः दस या उससे भी ज्यादा मुसलमानों को पकड़ कर उन्हें बुरी तरह जिस्मानी अजियतें (यातनाएं) देते है। अपने लोगों के जरिए लिखे बयानात पर दस्तखत करा लेते है। दावा यह किया जाता है कि बम द्दमाके या दहशतगर्दी के वाक्ये में मुलव्विस मुल्जिमान को पकड़ लिया गया है। उनके गरोह का सफाया कर दिया गया है। इन दावों के महीने दो महीने बाद फिर कोई वाक्या हो जाता है। कभी तो पुलिस की जवाबदेही तय करनी चाहिए। अगर महीना भर पहले किसी शहर में किसी दहशतगर्द गरोह का सफाया हो चुका होता है तो फिर अगला वाक्या कैसे हो जाता है? इससे तो यही जाहिर होता है कि अस्ल मुल्जिमान घूम-घूम कर दहशतगर्दी फैलाते रहते है और पुलिस कुछ बेगुनाहों को जेल में बंद रखती है। दहशतगर्दी और दहशतगर्दी के इल्जाम में पकड़े जाने वालों का बयान कभी अवाम में नही आ पाता, उन्हें किसी से मिलने नही दिया जाता। नतीजा यह कि उसी बात को सच समझ लिया जाता है जो पुलिस मीडिया के जरिए आम लोगों को बताती है। ऐसा भी नही है कि बेगुनाहों को जबरदस्ती दहशतगर्द बताकर जेलों में डालने वाले या उन्हें फर्जी इनकाउंटर में कत्ल करने वाले दरिन्दा किस्म के पुलिस वाले पकड़े नही जाते। कई बार ऐसे लोग पकड़े जाते है। पंजाब में तो इस किस्म का जुर्म करने वाले कई पुलिस अफसरान अभी भी जेल की हवा खा रहे है। जम्मू कश्मीर में किसी बेगुनाह को दहशतगर्द करार देकर कत्ल करने वाले सिक्योरिटी अफसर अक्सर पकड़े गए हैं। मुंबई के कई पुलिस अफसरान भी कत्ल के मुकदमें में फंस चुके हैं, लेकिन ऐसे मुजरिम जेहन पुलिस वालों या सिक्योरिटी फोर्सेज के अफसरान के साथ वैसा सुलूक कभी नही होता जैसा कि दहशतगर्दी के नाम पर पकड़े जाने वाले किसी बेगुनाह के साथ होता है।एक बड़ा और अहम सवाल यह है कि आखिर दहशतगर्दी के वाक्ए से फायदा किसे मिलता है? और क्या फायदा होता है। गुजरात एलक्शन के बाद तो यह बात खुलकर सबके सामने आ चुकी है कि इस किस्म के वाक्यात का अस्ल सियासी फायदा सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को मिलता है और जिस किसी वाक्ए का फायदा बीजेपी को खुद ब खुद नही मिल पाता उसका फायदा बीजेपी जबरदस्ती छीनकर हासिल करना चाहती है। इकत्तीस दिसम्बर की रात में रामपुर के सीआरपीएफ कैम्प पर हमला हुआ, फौरन ही भारतीय जनता पार्टी ने रामपुर, फिर फैजाबाद, गोरखपुर, बनारस और लखनऊ में दहशतगर्दी मुखालिफ रैलियां करने का एलान कर दिया। अव्वल तो रैलियों के जरिए मुल्क में पनप रही दहशतगर्दी का मुकाबला नही किया जा सकता। दूसरे यह कि बुजदिलों की भीड़ इकट्ठा करके मसले का हल तलाश नही किया जा सकता। इस किस्म की रैलियों से सिर्फ और सिर्फ आम हिन्दुओं में आम मुसलमानों के लिए नफरत पैदा करने का ही काम किया जा सकता है। हमें तो शक ही नही यकीन है कि मुल्क में दहशतगर्दी की कार्रवाईयां वही लोग और वही ताकतें करा रही है जो ताकतें बाद में इन वाक्यात से सियासी फायदा उठाने की कोशिश करती हैं और फायदा उठा भी लेती हैं। रामपुर और उत्तर प्रदेश के दीगर शहरों में हुए दहशतगर्दी के वाक्यात के बाद तो आडवानी और राजनाथ सिंह अपनी पूरी टीम के साथ रैलियां करने निकल पड़े लेकिन उनकी अपनी पार्टी की सरकार वाली रियासत छत्तीसगढ़ में आए दिन दर्जनो पुलिस वाले मारे जाते है, जेल तोड़ कर मुजरिम फरार हो जाते हैं। पुलिस थानों पर हमला करके नक्सली थाने के पूरे के पूरे अमले को मौत के घाट उतार देते हैं। वहां नक्सलियों के खिलाफ आज तक बीजेपी ने एक भी रैली क्यों नही की? जैसा हमने कहा कि गुजरात में बीजेपी और इसके इंसानियत मुखालिफ वजीर-ए-आला नरेन्द्र मोदी ने असम्बली एलक्शन में सिर्फ मुस्लिम मुखालिफ नफरत फैलाकर एलक्शन जीता है। कांग्रेस सदर सोनिया गांद्दी ने गुजरात हुकूमत को मौत का सौदागर कहा था और बिल्कुल ठीक कहा था। इसके फौरन बाद नरेन्द्र मोदी ने अपना दरिन्दगी भरा चेहरा छुपाने के लिए फौरन सोहराबउद्दीन का मसला छेड़ दिया। सोनिया गांद्दी ने तो सोहराबउद्दीन का नाम नहीं लिया था। फिर नरेन्द्र मोदी ने सोनिया के इल्जाम का जवाब देने के बजाए सोहराबउद्दीन का मसला क्यों छेड़ा? क्योंकि उसी के सहारे वह मिडिल क्लास गुजराती हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करके उनका वोट लूटना चाहते थे। इस काम में वह कामयाब भी हुए। इसीलिए हम बार बार मतालबा करते है कि जब तक दहशतगर्दी के वाक्यात की तहकीकात सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को निशाना बनाकर की जाती रहेगी। दूसरे पहुलओं पर भी गौर नही किया जाएगा, उस वक्त तक दहशतगर्दी पर काबू पाना किसी भी हालत में मुमकिन नही हो सकेगा।हम यह नही कहते कि दहशतगर्दी के वाक्यात में कोई मुसलमान मुलव्विस ही नही होता है। जरूर होते होंगे, लेकिन सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही इन वाक्यात में मुलव्विस होते है इस बात पर हम कभी भी यकीन नही कर सकते। कोयमबटूर में एक ट्राफिक पुलिस सिपाही के कत्ल के बाद जो कुछ हुआ था और गोद्दरा में ट्रेन हादसे के बाद पूरे गुजरात में जो कुछ हुआ, उन वाक्यात पर नजर डालने से यकीनी हो जाता है कि आरएसएस ने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के नाम पर जो नई पौद्द तैयार की है वह हर बुरे से बुरा जुर्म कर सकती है। भारतीय पुलिस का आम ख्याल होता था कि चाकूबाजी की हरकत सिर्फ मुसलमान ही कर सकता है। मुंबई में सन् बान्नबे (१९९२) में हुए मुस्लिम मुखालिफ फसादात हो, पूरे गुजरात में मुसलमानों की नस्लकुशी के वाक्यात हो, कोयम्बटूर के फसाद हो या मेरठ और गाजियाबाद के वाक्यात अब तो सबके सामने है कि चाकूबाजी, तलवारबाजी और इंसानों को जिंदा जलाने जैसी वहशियाना हरकतें कौन कर रहा है? जिस मजहब की बुनियादी तालीम रवादारी (सहिष्णुता) हो, जहां चिड़िया तक मारना मना हो, उस मजहब की ठेकेदारी का दावा करने वाले कुछ लोग अगर किसी हामिला (गर्भवती) खातून का पेट फाड़कर बच्चे को तलवार की नोक पर उछालने, फिर मां और पैदा होने से पहले ही बच्चे को आग में झोंक दे तो ऐसा करने वाले बम भी फाड़ सकते हैं। सीआरपीएफ कैम्प या पुलिस पर हमला भी कर सकते हैं, चलती ट्रेनों को आग के हवाले भी कर सकते है और दुनिया का हर बुरा काम कर सकते है। इसलिए पुलिस को चाहिए कि अपनी तहकीकात का फोकस थोड़ा घुमाकर भी देखे, शायद ज्यादा कामयाबी मिलेगी। जहां तक मुसलमानों का सवाल है तो दहशतगर्दी के किसी भी वाक्ये से किसी भी मुसलमान, मुस्लिम तंजीम को किसी किस्म का कोई फायदा नही है। न ही कोई मुसलमान कभी इस तरह का फायदा उठाने की बात अपने जेहन में ही लाता है। दूसरी तरफ संघ परिवार है जो दहशतगर्दी के हर वाक्ये के बाद अपने वोटों में इजाफा करने की कोशिशों में मसरूफ हो जाता है।दहशतगर्दी के वाक्यात से भारतीय जनता पार्टी जो सियासी फायदा उठाने की मुहिम चलाती है, मुल्क की पुलिस भी इस काम में उसकी भरपूर मदद करती रहती है। मसलन कहीं बम द्दमाका हुआ नही कि पुलिस फौरन दो चार मुस्लिम नाम मीडिया में लीक करके ही तहकीकात शुरू करती है। यह बिल्कुल फितरी (स्वाभाविक) बात है कि बार बार अगर बम द्दमाकों में मुसलमानों का ही नाम लिया जाता है तो उसे सुन सुन कर बड़ी तादाद में उन हिन्दुओं के जेहन भी मुस्लिम मुखालिफ होने लगते है जिन हिन्दुओं का भारतीय जनता पार्टी या फिरकापरस्ती से कुछ लेना देना नही है। रामपुर के ही वाक्ए को देखे सीआरपीएफ कैम्प पर हमले के अगले ही दिन पुलिस ने मीडिया में यह खबर प्लांट करा दी कि कण्ट्रोल रूम नम्बर दो में तैनात एक सिपाही तो हमलावरों की गोली का शिकार होकर शहीद हो गया, लेकिन उसी रूम में तैनात जावेद अहमद बच गया, हो न हो जावेद और कैम्प में शामिल उन अरसठ सिपाहियों ने ही दहशतगर्दो से मिलकर यह हमला कराया हो जो पहले कभी दहशतगर्द थे। सालों पहले उन्होंने हथियार डाल दिए थे। खुद फौज के हवाले कर दिया था, फिर उन्हें सीआरपीएफ में भर्ती कर लिया गया। यह सवाल ही अपने आप में अजीब है कि जब दो जवान कण्ट्रोल रूम मे तैनात थे एक क्यों मरा जावेद क्यों नही मरा? पहली बात तो यह कि उसकी मौत नही थी, नही मरा, दूसरे यह कि जान बचाने की कोशिश तो दोनो ने की होगी, दूसरा अपनी कोशिश में कामयाब नही हो सका। ऐसा तो मुमकिन ही नही है कि रात के अंद्देरे में कैम्प पर हमला हो तीन साढ़े तीन मिनट में हमलावर अपना काम करके फरार हो जाए और अंद्देरे में भी गोली चलाते वक्त यह ख्याल रखे कि उनकी गोली जावेद अहमद को न लगाने पाए क्योंकि वह अपना मुस्लिम भाई है। सीआरपीएफ का कहना है कि अब तक जितने भी सरेण्डर शुदा कश्मीरी जवानों को सीआरपीएफ या दीगर फोर्सेज में भर्ती किया गया उनमें से एक भी बाद में गद्दार नही निकला और न ही किसी ने दोबारा अपनी पुरानी जरायम की दुनिया में लौटने का जुर्म किया है। सवाल यह है कि अगर जावेद अहमद को पूछगछ के लिए रामपुर से लखनऊ या दिल्ली कहीं ले जाया गया था तो पूछगछ मुकम्मल होने और उस पर हुए शक का यकीन होने से पहले उसका नाम मीडिया में क्यों उछलवाया गया। जवाब एक ही है कि उसका नाम उछलवाकर बड़ी तादाद में सेक्युलर जेहन हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत का जहर पैदा करना था, बाकी कुछ नही। इस काम में एक अंग्रेजी अखबार ने भी बहुत ही गलत तरीका अख्तियार किया। इस अखबार ने रामपुर कैम्प में मारे गए सभी जवानों की तस्वीरें और उनके बारे में थोड़ी थोड़ी तफसील शाया (प्रकाशित) की, लेकिन इस हमले में मारे गए हेड कांस्टेबिल अफजाल अहमद की न तस्वीर छापी और न ही उसकी कोई तफसील। इसका क्या मतलब निकाला जाना चाहिए।

सबसे अच्छे ईमान वाले

हजरत अब्दुल्लाह बिन उमरों (रजि०) से रिवायत है कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया- तुम में से सबसे अच्छे वह लोग है जिनके अख्लाक अच्छे है। (बुखारी व मुस्लिम)हजरत अबू हुरैरा (रजि०) से रिवायत है कि नबी करीम (सल०) ने फरमाया कि ईमान वालों में ज्यादा कामिल ईमान वाले वह लोग है जो अख्लाक में ज्यादा अच्छे हैं। (अबू दाऊद)

सबसे अच्छे ईमान वाले वह लोग है जिनके अख्लाक अच्छे है
मौलाना मोहम्मद मंजूर नोमानीनबी करीम (सल०) ने अपनी तालीम में ईमान के बाद जिन चीजों पर बहुत ज्यादा जोर दिया है और इंसान की सआदत को उन पर मौकूफ बतलाया है उनमें से एक यह भी है कि आदमी अच्छा अख्लाक अख्तियार करे और बुरे अख्लाक से अपनी हिफाजत करे। नबी करीम (सल०) की बैसत के जिन मकासिद का कुरआन मजीद में जिक्र किया गया है उनमें एक यह भी बताया गया है कि आप को इंसानों का तजकिया करना है और उस तजकिये में अख्लाक की इस्लाह और दुरूस्ती को खास अहमियत है।
हदीस की मुख्तलिफ किताबों में खुद आप से यह मजमून रिवायत किया गया है कि मै अख्लाक की इस्लाह के लिए भेजा गया हूं। यानी अख्लाक की इस्लाह का काम मेरी बअसत के अहम मकासिद और मेरे प्रोग्राम के खास हिस्सों में से है।होना भी यही चाहिए था क्योंकि इंसान की जिदंगी और उसके नतीजों में अख्लाक की बड़ी अहमियत है। अगर इंसान के अख्लाक अच्छे हों तो उसकी अपनी जिदंगी भी दिली सुकून और खुशगवारी के साथ गुजरेगी और दूसरों के लिए भी उस का वजूद रहमत और चैन का सामान होगा। इसके बरअक्स अगर आदमी के अख्लाक बुरे हो तो खुद भी वह जिदंगी के लुत्फ व खुशी से महरूम रहेगा और जिन से उसका वास्ता और ताल्लुक होगा उनकी जिदंगियां भी बेमजा और तल्ख होगी। यह तो खुशअख्लाकी और बदअख्लाकी के वह नकद दुनियावी नतीजे है जिनका हम और आप रोजाना मुशाहिदा और तजुर्बा करते रहते हैं। लेकिन मरने के बाद वाली हमेशा की जिदंगी में इन दोनो के नतीजे इनसे कई दर्जे ज्यादा अहम निकलने वाले है। आखिरत में खुशअख्लाकी का नतीजा अल्लाह की रजा और जन्नत है और बदअख्लाकी का अंजाम अल्लाह का गजब और दोजख की आग है।अख्लाक की इस्लाह के सिलसिले में नबी करीम (सल०) के जो इरशादात हदीस की किताबों में महफूज है वह दो तरह के हैं। एक वह जिन में आप ने उसूली तौर पर अच्छे अख्लाक पर जोर दिया है और उसकी अहमियत व फजीलत और उसका गैर मामूली आखिरत का सवाब बयान फरमाया है। दूसरे वह जिनमें आप ने कुछ खास खास अच्छे अख्लाक अख्तियार करने की या इसी तरह कुछ मखसूस बदअख्लाकियों से बचने की ताकीद फरमाई है।हजरत अब्दुल्लाह बिन उमरों (रजि०) से रिवायत है कि नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया- तुम में से सबसे अच्छे वह लोग है जिनके अख्लाक अच्छे है। (बुखारी व मुस्लिम)हजरत अबू हुरैरा (रजि०) से रिवायत है कि नबी करीम (सल०) ने फरमाया कि ईमान वालों में ज्यादा कामिल ईमान वाले वह लोग है जो अख्लाक में ज्यादा अच्छे हैं। (अबू दाऊद)मतलब यह है कि ईमान और अख्लाक में ऐसा लगाव है कि जिसका ईमान कामिल होगा, उसके अख्लाक लाजिमन बहुत अच्छे होंगे। उसका ईमान भी बहुत कामिल होगा। वाजेह रहे कि ईमान के बगैर अख्लाक बल्कि किसी अमल का यहां तक कि इबादतों का भी कोई एतबार नही है। हर अमल और हर नेकी के लिए ईमान बमंजिला रूह और जान के है। इसलिए अगर किसी शख्सियत में अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान के बगैर अख्लाक नजर आए तो वह हकीकी अख्लाक नही है बल्कि अख्लाक की सूरत है। इसलिए अल्लाह पाक के यहां इसकी कोई कीमत नही है।हजरत अबुल दरवा (रजि०) से रिवायत है वह नबी करीम (सल०) से नकल करते हैं कि आप ने इरशाद फरमाया कि कयामत के दिन मोमिन के मीजान अमल में सबसे ज्यादा वजनी और भारी चीज जो रखी जाएगी वह उसके अच्छे अख्लाक होंगे। (अबू दाऊद)कबीला मुजैयना के एक शख्स से रिवायत है कि कुछ सहाबा ने अर्ज किया या रसूल (सल०)। इंसान को जो कुछ अता हुआ है उसमें सबसे बेहतर क्या है? आप (सल०) ने इरशाद फरमाया- अच्छे अख्लाक।' (इसको इमाम बेहकी ने शोएबुल ईमान में रिवायत किया है और इमाम बगवी ने शरहुस्सना में इस हदीस को ओसामा बिन शरीक सहाबी से रिवायत किया है)इन हदीसों से यह नतीजा निकालना सही न होगा कि अच्छे अख्लाक का दर्जा ईमान या अरकान से भी बढ़ा हुआ है। सहाबा-ए-कराम जो इन इरशादात के मुखातिब थे उनको नबी करीम (सल०) की तालीम व तर्बियत से यह तो मालूम ही हो चुका था कि दीन के शोबों में सबसे बड़ा दर्जा ईमान और तौहीद का है। इसके बाद अरकान का मकाम है। फिर इनके बाद दीनी जिदंगी के जो मुख्तलिफ हिस्से रहते हैं उनमें मुख्तलिफ वजहों से कुछ को कुछ पर फौकियत और इम्तियाज हासिल है। बिला शुब्हा अख्लाक का मकाम बहुत बुलंद है और इंसानों की सआदत और फलाह में और अल्लाह पाक के यहां उनकी मकबूलियत व महबूबियत में अख्लाक को यकीनन खास दखल है।हजरत आयशा सिद्दीका (रजि०) से रिवायत है फरमाती है कि मैने नबी करीम (सल०) से सुना आप इरशाद फरमाते थे कि साहबे ईमान बन्दा अच्छे अख्लाक से उन लोगों का दर्जा हासिल कर लेता है जो रात भर नफिली नमाजें पढ़ते हों, और दिन को हमेशा रोजा रखते हों। (अबू दाऊद)मतलब यह है कि अल्लाह के जिस बन्दे का हाल यह हो कि वह अकीदा और अमल के लिहाज से सच्चा मोमिन हो और साथ ही उसको अच्छे अख्लाक की दौलत भी नसीब हो तो हालांकि वह रात को ज्यादा नफिले न पढ़ता हो और कसरत से नफिली रोजे न रखता हो लेकिन फिर भी वह अपने अच्छे अख्लाक की वजह से उन शबबेदारों और इबादतगुजारों का दर्जा पा लेगा जो रातें नफिले में काटते है और दिन को रोजा रखते हो।एक रिवायत में नबी करीम (सल०) ने इरशाद फरमाया कि तुम दोस्तों में मुझे ज्यादा महबूब वह है जिनके अख्लाक ज्यादा अच्छे हैं। (सही बुखारी)

गीत सारे जहां से अच्छा -स्वतंत्राता संग्राम की एक अनोखी दास्तान

स्वाधीनता संग्राम संबंधित किस्सों से यूं तो इतिहास भरा पड़ा है लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी भी हैं जो महत्वपूर्ण होने के बावजूद इतिहास के पन्नों में उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं। अल्लामा इकबाल द्वारा लिखे गये देश भक्ति गीत सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा' हम हर स्वतंत्राता दिवस व गणतंत्रा दिवस पर गाते हैं लेकिन ये गीत किस स्थिति में लिखा गया ये बहुत कम लोगों को मालूम होगा।गीत की रचना हुए एक सदी से ज्यादा बीत गई है लेकिन आज भी तराना हिन्द के बगैर स्वतंत्राता दिवस या गणतंत्रा दिवस को कोई भी राष्ट्रीय पर्व का समारोह पूरा नहीं हो सकता। इक़बाल ने ये गीत १०३ वर्ष पूर्व १०अगस्त १९०४ को लाहौर में लिखा था देश में उस समय स्वतंत्राता आन्दोलन ज्वार पर था। ऐसे में इक़बाल ने तराना-ए-हिन्द लिखकर लोगों में जोश की वो आग भड़काई जो स्वतंत्राता प्राप्त किये बिना बुझने को किसी भी स्थिति में तैयार नहीं था।इस तराना को पहली बार गाये जाने की कहानी भी काफी रोचक है। बात उन दिनों की है जब लाहौर में युवाओं के मनोरंजन के लिए एक ही क्लब हुआ करता था। क्लब का नाम था यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन।एक बार लाला हरदयाल की क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर तीखी बहस हो गई। लाला जी ने आव देखा न ताउ तुरंत ही यंग मैन इंडिया एसोसियेशन की स्थापना कर दी। उस समय लाला हरदयाल लाहौर में एम ए कर रहे थे। लाला जी के कालेज में इक़बाल दर्शन शास्त्रा पढ़ाते थे दोनों के बीच दोस्ताना संबंध था जब लाला जी उनसे एसो सियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गये ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो।इस छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि इक़बाल को समारोह के आरंभ और समापण दोनों पर ये गीत सुनाना पड़ा।
ये गीत पहली बार मौलाना शरर की उर्दू पत्रिाता इत्तेहाद में १६अगस्त् १९०४ को प्रकाशित हुआ । इस तराने के शीर्षक भी कई बार बदले गये। पहले यह ÷हमारा देश' के शीर्षक से प्रकाशित हुआ फिर हिन्दुस्तां हमारा' के नाम से प्रकाशित हुआ।इस गीत ने लोगों पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि यह सब की जुबान पर चढ़ गया बाद में इक़बाल ने अपने पहले कविता संग्रह ÷बांगे दरा' में इसे तराना-ए-हिन्द के नाम से शामिल कर लिया। स्वतंत्राता आंदोलन में इस गीत का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि १४-१५ अगस्त की रात में ठीक १२ बजे संसद में हुए समारोह में जन गण मन के साथ इक़बाल की इस रचना ÷सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा' को भी समूहगान के रूप में गाया गया।स्वतंत्राता की २५वीं वर्षगांठ पर १५अगस्त १९७२ को सूचना और प्रसारण मंत्राालय ने इस गीत की धुन तय कराई आज कल यही धुन प्रचलित है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस गीत को सुनकर कहा था कि यह हिन्दुतान की क़ौमी जु+बान का नमूना है। ये अलग बात है कि उर्दू हिन्दुस्तान की कौमी जुबान नहीं बन सकी। हिन्दी ने उर्दू पर बाज+ी मार ली।आज जब हम आजादी के ६० वर्ष पूरे कर चुके हैं तब इक़बाल द्वारा लिखे इस तराने का महत्व और भी बढ़ गया है। भारत की एकता आज पहले से अधिक जरूरी हो गई है और ये गीत सर्वधर्म एकता का ही प्रतीक है।इस गीत से संबंधित ये पहलू बहुत दुखदायक है कि कुछ लोग इस गीत को केवल इसलिए नज+र अंदाज करते हैं कि इसे इक़बाल ने लिखा था जिन्हें पाकिस्तान के गठन का समर्थक कहा जाता है। हाल ही में एक और देश भक्ति गीत वंदेमातरम १०० वर्ष पूरे होने पर जिस तरह कुछ लोगों ने हंगामा मचाया वह वास्तव में सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा का विरोध था। हालांकि सरकार की ओर से इस गीत को गाने के लिए बाध्य नहीं किया गया था फिर भी कुछ राज्यों में मुस्लिम संस्थानों को जान बुझ कर इस गीत को गाने पर बाध्य किया गया।बहर हाल सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा का महत्व आज भी बरकरार है और आगे भी रहेगा क्योंकि स्वतंत्राता से संबंधित ये ऐसा गीत है जो सबकी समझ में बहुत आसानी से आ जाता है।

इस्लाम पर आलोचना क्यों?

इस्लाम पर आलोचना क्यों? मो० अहमद काज -
इस्लाम दुनिया का एक मात्रा धर्म है जो हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है और इस परिदृश्य में ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि जितनी चर्चा इस्लाम पर हो चुकी है उतनी किसी धर्म पर नहीं हुई होगी। ११सितंबर २००१ को अमेरिका स्थित वर्ल्ड ट्रेड टावर और रक्षा कार्यालय पेंटागन पर हुए हमले के बाद इस बहस ने नई दिशा ले ली है। यानी इस्लाम को सीधे सीधे आतंकवाद से जोड़ने के साथ ये आरोप लगाये जा रहे हैं कि इस्लाम हिंसा को बढ़ावा देता है।इस संबंध में प्रसिद्ध बुद्धिजीवी अकबर अहमद का स्पष्टीकरण ध्यान देने योग्य है।अकबर अहमद के अनुसार सितंबर २००१ में अमेरिका पर आतंकवादी हमला दो बड़ी संस्कृतियों के बीच टकराव का कारण बन गया जिसमें एक ओर अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी देश हैं और दूसरी ओर पूरा इस्लामी समाज है। दोनों संस्कृतियां चूंकि समाजिक रूप से एक दूसरे के भिन्न हैं इसलिए उस त्रास्दी के बाद जिसमें ५ हजार लोग मारे गये थे उनके संबंध में तनाव बढ़ गया।अकबर अहमद ने अपनी किताब श्रवनतदमल पद जव प्ेसंउरू ज्ीम ब्तपेपे वि ळसवइंसपेंजपवद में अपने विचार पेश करते हुए कहा है कि वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमले के बाद आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध का विधिवत आरंभ हो गया और ये एक ऐसा युद्ध है जिसका अतीत ने कोई उदाहरण नहीं था।क्योंकि सामने कोई दुशमन नहीं। यही कारण है कि इस युद्ध के जल्द समाप्त होने की संभावना नहीं है। आतंकवाद विरोधी युद्ध कोई सांस्कृतिक या धार्मिक युद्ध नहीं फिर भी इस में दोनों पहलू शामिल है।अहमद ने जो ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्च आयुक्त भी रह चुके हैं, कहा है कि इस युद्ध में उस इस्लाम को हिंसा का जिम्मेदार करार दिया जा रहा है जिसका संदेश हिंसा के विरूद्ध है।कुछ मुसलमानों की गतिविधियां जैसे ओसामा बिन लादिन के इरादों और अफ्रीका में अमेरिकी दूतावासों पर हमलों को मुसलमानों के उग्रवाद क्षेत्रा की ओर से वैध ठहराने के कारण इस्लामी दुनिया अकारण समस्या में उलझ कर रह गई है। अहमद कहते हैं कि मुसलमान भी किसी हद तक पश्चिमी शक्तियों क्षुब्ध हैं और वह समझते हैं कि अमेरिका फलसतीन समस्या को हल करने में रूचि नहीं रखता। कश्मीर और अफगानिस्तान जैसी समस्याओं पर भी वह अमेरिकी विचारों से संतुष्ट नजर नहीं आते।अपनी किताब में अहमद ने कहा है कि सितंबर २००१ की घटना पर बहुत सारे मुस्लिम देशों में गहरे दुःख व्यक्त किये गये थे। क़ाहिरा,तेहरान और इस्लामाबाद के अतिरिक्त दूसरे मुस्लिम देशों में प्रार्थना सभाएं की गई लेकिन उनका प्रभाव अस्थाई रहा है और धीरे-धीरे सहानुभूति नाराज+गी में बदल गई क्योंकि अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान और फिर इराक़ पर चढ़ाई कर के मुसलमानों की भावनाओं को घायल कर दिया।एक खबर ये है कि लंदन में रहने वालों की एक बड़ी संख्या इस्लाम को सम्पूर्ण रूप से असहन का धर्म और आतंकवाद का जिम्मेदार समझती है। इवनींग स्टैंडर्ड के एक सर्वे के हवाले से बताया गया है कि लंदन में रहने वाले ७०१ लोगों से सवाल पूछे गये थे उनमें ३७प्रतिशत लोगों को ७जुलाई के आतंकवाद में भी किसी न किसी हद तक इस्लाम का हस्तक्षेप नज+र आया। एक तिहाई लोगों ने कहा कि कट्टरपंथी इस्लामी एजेंडा रखने वाले ऐसे ग्रुपों पर भी पाबंदी लगा दी जाए जिसका सीधा संबंध आतंकवाद से नहीं है।,२० प्रतिशत लोगों ने कहा कि किसी भी धार्मिक श्रद्धा वाले स्ेकुलों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन एक तिहाई लोगों ने इस विचार से सहमति व्यक्त नहीं की। १० प्रतिशत लोगों का विचार था कि धार्मिक स्कूलों की संख्या कम कर दी जाए। आधे से अधिक लोगों ने महसूस किया कि लंदन में रहने वाले मुसलमान शेष लोगों से अलग थलग हैं। इदुलफित्रा की छुट्टी का भी ये कह कर विरोध किया गया कि इस त्योहार को क्रिस्मस या ईस्टर के बराबर का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए।जहां तक ब्रिटिश सरकार का संबंध है तो वह आतंकवाद से संबंधित घटनाओं के लिए केवल मुसलमानों को जिम्मेदार समझती है और वहां आतंकवाद में शामिल लोगों को दूसरे देशों के मुकाबले में अधिक हिरासत में रखा जा सकता है।लंदन में मानवाधिकार संगठन लिबर्टी की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार लंदन में आतंकवाद में शामिल लोगों को हिरासत में रखने की अवधि २८ दिन है जो दूसरे देशों के मुकाबले में ज्यादा है और ब्रिटिश सरकार इस अवधि में और बढ़ोतरी करने पर विचार कर रही है। लिबर्टी की रिपोर्ट में कहा गया है कि संगठन की ओर से इस संबंध में १५ देशों के आतंकवाद विशेषज्ञ और वकीलों के साक्षात्कारों के बाद पता चला है कि अमेरिका में आतंकवादियों को हिरासत में रखने की अवधि २ दिन, फ्रांस में ६ दिन, इटली में ४ दिनऔर तुर्की में ७से ८दिन है जबकि इटली जहां मैड्रिड बम धमाकों में १९१ व्यक्ति मारे गये, संदिग्ध व्यक्त्यों को हिरासत में रखने की अवधि केवल ५ दिन है जबकि आस्ट्रेलिया में ये अवधि १२ दिन है जो ब्रिटेन के बाद दूसरे नबंर पर है।रिपोर्ट में कहा गया है कि दूसरे देशों को भी ब्रिटेन की तरह अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौतियों का खतरा है लेकिन हिरासत की अवधि आश्चर्यजनक है।लिबर्टी की रिापोर्ट ऐसे समय में प्रकाशित हुई है जब ब्रिटिश सरकार इस अवधि में बढ़ोतरी पर विचार कर रही है। इधर आतंकवाद और रक्षा मामलों से संबंधित ब्रिटिश मंत्री टोनी मैक का विचार है कि कुछ मामलों में अधिक से अधिक समय की आवश्यकता पड़ती है।जिस तरह अफगानिस्तान और इराक़ पर अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों में अपना वर्चस्व बना रखा है और फिलिस्तिनीयों की समस्या को लगातार नज+र अंदाज किया जा रहा है तथा ईरान पर हमले का बहाना ढूंढा जा रहा है वह भी इस्लाम दुशमनी का ही स्पष्ट इशारा है। कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति, संस्थान, देश या धर्म को बदनाम करना हो तो उसके विरूद्ध अफवाहों का बाजार गर्म कर दो। इस्लाम के साथ वही हो रहा है। अफवाहें फैलाकर इस्लाम को निशाना बनाया जा रहा है जो निंदनीय है।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम का बयान

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम का बयान
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया कि जो शख्स 'बिस्मिल्लाह' पढ़ता हो तो अल्लाह तआला उसके लिए दस (10) हज़ार नेकियाँ लिखता है और शैतान इस तरह पिघलता है, जैसे आग में रांगा। हर ज़ीशान (अहम) काम जो 'बिस्मिल्लाह' से शुरू न किया जाए, वह नातमाम (अधूरा) रहेगा और जिसने 'बिस्मिल्लाह' को एक बार पढ़ा, उसके गुनाहों में से एक ज़र्रा भर गुनाह बाक़ी नहीं रहता और फ़रमाया जब तुम वुज़ू करो तो 'बिस्मिल्लाह वलहमदुलिल्लाह' कह लिया करो, क्योंकि जब तक तुम्हारा वुज़ू बाक़ी रहेगा, उस वक्त तक तुम्हारे फ़रिश्ते (यानी किरामन कातिबीन) तुम्हारे लिए बराबर नेकियाँ लिखते रहते हैं।हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया की कोई आदमी जब अपनी बीवी के पास आए तो कहे बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम ऐ अल्लाह हमको शैतान से महफूज रख और जो तू मुझे अता फ़रमाए उससे भी शैतान को दूर रख और कोई औलाद हो तो शैतान उसे भी नुकसान नहीं पहुँचा सकेगा (बुख़ारी शरीफ जिल्दे अव्वल सफ़ा 26)।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने शबे मेराज में चार (4) नहरें देखीं, एक पानी की, दूसरी दूध की, तीसरी शराब की और चौथी शहद की। आपने जिब्रीले अमीन से पूछा ये नहरें कहाँ से आ रही हैं, हज़रत जिब्रील ने अर्ज किया, मुझे इसकी ख़बर नहीं। एक दूसरे फ़रिश्ते ने आकर अर्ज़ की कि इन चारों का चश्मा मैं दिखाता हूँ।एक जगह ले गया, वहाँ एक दरख्त था, जिसके नीचे इमारत (मकान) बनी थी और दरवाज़े पर ताला लगा था और उसके नीचे से चारों नहरें निकल रही थीं। फ़रमाया दरवाज़ा खोलो अर्ज़ की इसकी कुंजी मेरे पास नहीं है, बल्कि आपके पास है। हूज़ुर ने 'बिस्मिल्लाह' पढ़कर ताले को हाथ लगाया, दरवाज़ा खुल गया।अंदर जाकर देखा कि इमारत में चार खंभे हैं और हर खंभे पर 'बिस्मिल्लाह' लिखा हुआ है और 'बिस्मिल्लाह' की 'मीम' से पानी, अल्लाह की 'ह' से दूध, रहमान की 'मीम' से शराब और रहीम की 'मीम' से शहद जारी है। अंदर से आवाज़ आई- ऐ मेरे महबूब! आपकी उम्मत में से जो शख्स 'बिस्मिल्लाह' प़ढ़ेगा, वह इन चारों का मुस्तहिक़ होगा। (तफ़सीरे नईमी जि। 1, स. 43) फ़िरऔन ने ख़ुदाई का दावा करने से पहले एक महल बनवाया था और उसके बाहरी दरवाज़े पर 'बिस्मिल्लाह' लिखवाया, लेकिन जब उसने ख़ुदाई का दावा किया तो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़िरऔन को अल्लाह पर ईमान लाने की दावत दी, उसने क़ुबूल नहीं की तो हज़रत मूसा अल्लैहिस्सलाम ने हलाकत (बर्बादी) की दुआ की। 'ऐ अल्लाह फ़िरऔन को हलाक (बर्बाद) फ़रमा जो बंदा होने के बावजूद मअबूद (खुदा) बना हुआ है। वही आई कि ऐ मूसा फ़िरऔन इस क़ाबिल है कि उसे हलाक कर दिया जाए, लेकिन मैं अपना नाम देख रहा हूँ। इसी वजह से फ़िरऔन के घर पर अज़ाब नहीं आया। अल्लाह ने उसे वहाँ से निकाल के दरियाए नील में डुबोया। इमाम फ़खरुद्दीन राज़ी फ़रमाते हैं कि जो अपने मकान के बाहिरी दरवाज़े पर 'बिस्मिल्लाह' लिख लिया, वह हलाकत से दुनिया में बेखौफ हो गया। ख्वाह का़फिर की क्यों न हो। (तफसीरे नईमी जि. 1, सं. 43)हज़रत ईसा अलैहिस्सलान एक क़ब्र से गुज़रे उस कब्र की मय्यत पर बहुत ़सख्त अज़ाब हो रहा था, यह देखकर चंद क़दम आगे तशरीफ़ ले गए और इसतन्जा फ़रमाकर वापिस आए तो देखा कब्र में नूर ही नूर है और वहाँ रहमते इलाही की बारिश हो रही है।आप बहुत हैरान हुए और बारगाहे इलाही में अर्ज़ की ऐ अल्लाह मुझे इससे आगाह फ़रमा। इरशाद हुआ ऐ ईसा यह शख्स ज्यादह गुनाह और बदकारी की वजह से अज़ाब में गिरफ्त था, लेकिन इसने अपनी हामेला बीवी छोड़ी थी। उसको लड़का पैदा हुआ और उसको मकतब (मदरसा) भेजा गया।उस्ताद ने उसको 'बिस्मिल्लाह' पढ़ाई हमें हया आई कि मैं ज़मीन के अंदर उस शख्स को अज़ाब दूँ, जिसका बच्चा ज़मीन पर मेरा नाम ले रहा है। नेक बच्चों की नेकी से वालदैन की निजात होती है (निजामे शरिअत सं. 37)।मसअला- बिस्मिल्लाह क़ुरान पाक की कुंजी है। बल्कि हर दुनियावी व दीनी जाइज़ काम की भी कुंजी है, जो काम उसके बग़ैर किया जाए, अधूरा रहता है।मसअला- बिस्मिल्लाह क़ुरान पाक की पूरी आयत है, मगर किसी सूरत का जुज हीं, बल्कि सूरतों में फ़ासेला करने के लिए उतारी गई है।मसअला- नमाज़ में इसको आहिस्ता से पढ़ते हैं, अलबत्ता जो हा़फिज़ तरावीह में पूरा क़ुरान पाक ख़त्म करे तो ज़रूरी है कि किसी सूरत के साथ बिस्मिल्लाह ज़ोर से पढ़े। हर जाइज़ काम बिस्मिल्लाह से शुरू करना मुस्तहब है।मसअला- जानवर ज़िबाह करते वक्त बिस्मिल्लाह पढ़ना वाजिब है। अगर जान-बूझकर छोड़ दिया तो जानवर का गोश्त खाना हराम होगा और अगर भूल से छूट गई तो हलाल है।मसअला- शराब पीने, ज़िना करने, चोरी करने, जुआ खेलने के लिए बिस्मिल्लाह पढ़ना कुफ्र है, जबके इन हराम कामों को करते वक्त बिस्मिल्लाह पढ़ना हलाल समझें (फतावा आलमगीरी जि. 2, स. 245)।

हज़रत मोहम्मद साहब का बयान


हमारे नबी का नाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम है, जो पीर के दिन, सुबह सादिक़ के वक्त (12) बारह रबीउल अव्वल, बमुताबिक़ बीस(20) अप्रैल 571 ईसवी, मुल्क अरब के शहर मक्का शरीफ़ में पैदा हुए। आपके वालिद का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा का नाम हज़रत आमेना है और दादा का नाम अब्दुलमुत्तलिब है और नाना का नाम वहब है।अल्लाह तआला ने हमारे नबी को हर चीज़ से पहले अपने नूर से पैदा फ़रमाया। अम्बिया, फ़रिश्ते, ज़मीन-आसमान, अर्श व कुर्सी, लोह व क़लम और पूरी दुनिया को आपके नूर की झलक से पैदा फ़रमाया। तमाम जहाँ में कोई किसी भी ख़ूबी में हुज़ूर के बराबर नहीं हो सकता। हमारे नबी तमाम नबियों के नबी हैं। हर शख्स पर आपकी इताअत लाज़िम है।अल्लाह तआला ने अपने तमाम खज़ानों की कुंजी हमारे प्यारे नबी को अता फरमाई है। दीन व दुनिया की सब नेमतों का देने वाला अल्लाह तआला है और तक़सीम करने वाले हमारे प्यारे नबी हैं (मिशकत शरीफ़ जि. 1, स. 32)।अल्लाह तआला ने अहकामे शरीअत भी हमारे नबी को बख्श दिए, जिस पर जो चाहें हलाल फ़रमा दें और जिसके लिए जो हराम कर दें। फर्ज़ भी चाहें तो मआफ़ फ़रमा दें (बहारे शरीअत जि. 1, स. 15)।अगर किसी इबादत से हुज़ूर नाराज हैं तो वो इबादत गुनाह है और किसी ख़ता से हुज़ूर राज़ी हैं तो वो ख़ता ऐन इबादत है। हज़रत सिद्दीक़े अकबर का ग़ारे सौर में साँप से अपने को कटवाना खुदकुशी नहीं, ऐन इबादत है। खैबर की वापसी पर मकाम सहबा पर हज़रत अली का असर की नमाज़ कज़ा कर देना गुनाह नहीं, बल्कि इबादत था। इसलिए कि इन चीज़ों से हुज़ूर राज़ी थे। अरफ़ात में आज भी नमाज़ मग़रीब को कज़ा करना इबादत है के इससे हुज़ूर राज़ी हैं (शाने हबीबुर्रेहमान 11)।अल्लाह तआला ने आपको मेराज अता फ़रमाई यानी अर्श पर बुलवाया, जन्नत, दोज़ख़ अर्श व कुर्सी वग़ैरह की सैर करवाई, अपना दीदार आँखों से दिखाया, अपना कलाम सुनाया, ये सब कुछ रात के थोड़े से वक्त में हुआ। कब्र में हर एक से आपके बारे में सवाल किया जाता है। क़यामत के दिन हश्र के मैदान में सबसे पहले आप ही शफ़ाअत करेंगे।सारी मखलूक़ खुदा की रज़ा चाहती है और ख़ुदा हमारे प्यारे नबी की रज़ा चाहता है और आप पर दुरुदों सलाम भेजता है। अल्लाह तआला ने अपने नाम के साथ आपका नाम रखा, कलमा, अज़ान, नमाज़, क़ुरान में, बल्कि हर जगह अल्लाह तआला के नाम के साथ प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम का नाम है।अल्लाह तआला ने हुज़ूर की बेत को अपनी बेत, आपकी इज्जत को अपनी इज्जत, हुज़ूर की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी, आपकी मोहब्बत को अपनी मोहब्बत, आपकी नाराजगी को अपनी नाराजगी क़रार दिया। हमारे प्यारे नबी तमाम नबियों से अफ़ज़ल हैं, बल्कि बाद खुदा आपका ही मरतबा है। इसी पर उम्मत का इजमा है। आपकी मोहब्बत के बग़ैर कोई मुसलमान नहीं हो सकता, क्योंकि आपकी मोहब्बत ईमान की शर्त है। आपके क़ौल व फ़ेल, अमल व हालत को हेक़ारत की नज़र से देखना या किसी सुन्नत को हल्का या हक़ीर जानना कुफ्र है।आपकी ज़ाहिरी जिंदगी (63) तिरसठ बरस की हुई, जब आपकी उमर 6 साल की हुई तो वालेदा का इन्तेक़ाल हो गया। जब आपकी उमर 8 साल की हुई तो दादा अब्दुल मुत्तलिब का इन्तेक़ाल हो गया। जब आपकी उमर 12 साल की हुई तो आपने मुल्के शाम का तिजारती सफर किया और पच्चीस साल की उमर में मक्का की एक इज्ज़तदार ख़ातून हज़रत ख़दीजा रदिअल्लाहो तआला अन्हा (जो चालीस की बेवा ख़ातून थीं) के साथ निकाह फ़रमाया और चालीस साल की उमर में ऐलाने नबुवत फ़ारान की चोटी से फ़रमाया और (53) तिरपन साल की उमर में हिजरत की (63) तिरसठ साल की उम्र में बारह रबीउल अव्वल 11 हिजरी बमुताबिक़ 12 जून 632 ई. पीर के दिन वफ़ात फ़रमाई। आपका मज़ार मुबारक मदीने शरीफ़ में है, जो मक्का शरीफ़ से उत्तर में तक़रीबन 320 किलोमीटर दूर है।मसअला- हुज़ूर के कब्र अनवर का अंदरूनी हिस्सा, जो जिस्स अतहर से लगा हुआ है व काबे मोअज्ज़मा व अर्शे आज़म से भी अज़जल है (मिरातुलमनाज़िह जि. 1, स. 431)।हज़रत आजबिर बिन सुमरा फरमाते हैं कि मैंने चाँद के चौदहवीं रात की रोशनी में प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम को देखा। आप एक सुर्ख़ यमनी जोड़ा पहने हुए थे। मैं कभी आप की तरफ देखता और कभी चाँद की तरफ। यकीनन मेरे नजदीक आप चौदहवीं रात के चाँद से ज्यादा हसीन नजर आते थे। हसीन तो क्या आफताब रिसालात के सामने चौदहवीं रात का चाँद फीका था। हज़रते बरार बिन आजीब से पूछा गया क्या रसूल्लल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम का चेहरा तलवार के मानिन्द था। उन्होंने कहा, नहीं, बल्कि चाँद के मानिन्द था (शमायले तीरमीजी शरीफ सफा 2)।

अल्लाह तआला

अल्लाह तआला
अल्लाह तआला एक है कोई उसका शरीक नहीं, न जात में, न सिफ़ात में, न अफ़आल में, न अहकाम में, न अस्मा में। तमाम जहानों का बनाने वाला वही है, ज़मीन आसमाँ, अर्श व कुर्सी, लोह व क़लम, चाँद व सूरज, आदमी-जानवर, दरिया, पहाड़, वगैरह दुनिया में जितनी भी चीज़ें हैं, सबका पैदा करने वाला वही है, वही रोज़ी देता है, वही सबको पालता है। अमीरी-गरीबी, इज्ज़त-ज़िल्लत, मारना-जिलाना सब उसके इख्तयार में है। वह जिसे चाहता है, इज्ज़त देता है और जिसे चाहता है ज़िल्लत देता है।हम सब उसके मोहताज हैं, वो किसी का मोहताज नहीं, वो हमेशा से है और हमेशा रहेगा। वह हर ऐब से पाक है, उसके लिए किसी ऐब का मानना कुफ्र है। वह हर ज़ाहिर छिपी चीज़ को जानता है। हम सब उसके बंदे हैं। वो हमारा मालिक है, वह एक और अकेला है। वही इबादत का हक़दार है। दूसरा कोई इबादत के लायक़ नहीं, हम सब उसकी मख़लूक़ हैं, वो हमारा ख़ालिक है, वो अपने बंदों पर रहमान व रहीम है। वह मुसलमानों को जन्नत और का़फिरों को दोज़ख़ में सज़ा देगा।अल्लाह तआला एक और अकेला है- न कोई उसका लड़का है- न वो किसी से पैदा हुआ है, न कोई उसके बराबर है। किसी को ख़ुदा का बेटा भाई या रिश्तेदार मानना कुफ्र है।मसअला- अल्लाह तआला को अल्लाह मियाँ या ऊपर वाला जैसा चाहेगा, वैसा होगा। ऐसे अल्फ़ाज़ अल्लाह तआला के लिए बोलना मना है।मसअला- हक़ीक़तन रोज़ी पहुँचाने वाला वही है फ़रिश्ते वग़ैरह वसीला और वास्ता हैं।मसअला- जो शख्स अल्लाह तआला की ज़ात व सिफात के अलावा किसी और चीज़ को क़दीम माने या दुनिया के ख़त्म होने में शक करे, वो का़फिर है।अक़ीदह- दुनिया की ज़िंदगी में अल्लाह ताला का दीदार सिर्फ हमारे प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम के लिए ख़ास है और आख़ेरत में हर मुसलमान को अल्लाह तआला का दीदार होगा। ़ख़्वाब में दीदार इलाही दिगर अम्बिया ऐ कराम बल्कि औलिया अल्लाह को भी हुआ है। हमारे इमाम आज़म को ख्वाब में सौ बार ज़ियारत हुई। (बाहरा शरीअत हिस्सा 1, स. 50)।

कुरान पाक का बयान

कुरान पाक का बयान
अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है- जब क़ुरान पढ़ा जाए तो उसे कान लगाकर सुनो और ख़ामोश रहो कि तुम पर रहम हो, (कनज़ुलइमान तरजुमा क़ुरान पारा- 9, रुकु- 14, सफ़ा- 284)।रसुलल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया जो क़ुरान पाक पढ़ेगा और उसके मुताबिक़ अमल करेगा, क़यामत के दिन अल्लाह तआला उसके माँ-बाप को एक ताज पहनाएगा, जिसकी रोशनी सूरज की रोशनी से बेहतर होगी (जब माँ-बाप को इतनी इज्ज़त मिलेगी तो पढ़ने वाले को कितनी इज्ज़त अल्लाह तआला अता फ़रमाएगा)। अल्लाह तआला उस शख्स को जहन्नम का अज़ाब न देगा, जिसने क़ुरान हिफ्ज़ किया और क़ुरान के हाफ़िज अल्लाह तआला के दोस्त हैं। कुरान हिफ्ज़ से (बग़ैर देखे) पढ़ना एक हज़ार दर्जा (सवाब) रखता है।कुरान बग़ैर हिफ्ज़ से (यानी देखकर) पढ़ना दो हजार दर्जा (सवाब) रखता है और लोगों में सबसे बड़ा इबादत गुज़ार वो है, जो सबसे ज्यादा क़ुरान की तिलावत करता है, बेशक ज़िस शख्स के सीने में क़ुरान का कोई हिस्सा नहीं, यानी कोई सूरत या आयत याद नहीं, वो वीरान घर की तरह है।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया क़ुरान पढ़ो इसलिए कि वो क़यामत के दिन अपने पढ़ने वाले की सिफ़ारिश बनकर आएगा और उसकी शिफ़ादत कुबूल होगी और इमामे बुख़ारी ने रिवायत की है प्यारे नबी सल्ललाहो अलैह व सल्लम ने फ़रमाया कि बेशक तुम में सबसे ज्यादा फ़जीलत वाला वो है, जिसने कुरान सीखा या सिखाया (बुख़ारी शरीफ़ जिल्द 2, सफ़ा 752)।मसअला- क़ुरान पाक ज़रूरत के मुताबिक 23 साल में थोड़ा-थोड़ा नाजिल हुआ और यक बारगी माह रमज़ान के शबे क़दर में नाज़िल हुआ।मसअला- तिलावत शुरू करते वक्त आऊज़ो बिल्लाह पढ़ना मुस्तहब है और बिस्मिल्लाह पढ़ना सुन्नत। तिलावत के दरमियान कोई दुनियावी काम या बात करें तो आऊज़ो और बिस्मिल्लाह फिर से पढ़ लें।मसअला- जब ख़त्म हो तो तीन बार क़ुलहव्ललाहो अहद यानी सूरे इख्लास पढ़ना बेहतर है।मसअला- क़ुरान देखकर पढ़ना ज्यादा सवाब रखता है, बग़ैर देखकर पढ़ने से, क्योंकि क़ुरान का देखना उसका छूना, उसको पास रखना भी सवाब है।मसअला- मजमे में सब बुलंद आवाज़ में पढ़ें ये हराम है। अकसर तीजों या क़ुरान ख्वानी की मजलिसों में बुलंद आवाज़ से सबके सब पढ़ते हैं, यह हराम है। अगर चंद शख्स पढ़ने वाले हों तो सब आहिस्ते पढ़ें। अगर मस्जिद में दूसरे शख्स नमाज़ में या दूसरे दीनी बातों में मसरूफ हैं या दुरुद शरीफ़ पढ़ने में मशगूल हैं तो कलामे पाक आहिस्ता पढ़ें। यानी ख़ुद पढ़ें और ख़ुद ही सुनें, वरना पढ़ने वाला ही गुनाहगार होगा।मसअला- जब बुलंद आवाज़ से क़ुराने पाक पढ़ा जाए तो तमाम हाज़रीन पर सुनना फ़र्ज़ है, जबकि वो मजमा सुनने के लिए ही हो, वरना एक का सुनना काफी है अगरचे और लोग काम में हों। बुलंद आवाज़ से पढ़ना अफ़जल है, जबकि किसी मरीज़ या सोते को तकलीफ़ न पहुँचे।मसअला- क़ुरान की कसम भी कसम है, अगर उसके ख़िलाफ होगा कफ्फ़ारा लाज़िम आएगा।मसअला- क़ुरान की किसी आयत को ऐब लगाना या उसकी तौहीन करना या उसके साथ मज़ाक या दिल्लगी करना या आयते क़ुरान को बेमौके महल पढ़ देना के लोग सुनकर हँसें ये क्रुफ है।मसअला- क़ुराने पाक पुराना या बोसिदा हो गया, इस क़ाबिल न रहा कि उसमें तिलावत की जाए और यह अंदेशा है कि इसके पन्ने बिखर जाएँगे, तो किसी पाक कपड़े में लपेटकर ऐहतियात की जगह या क़ब्रस्तान में दफना दिया जाए और दफ़न के लिए कब्र बनाई जाए और उस पर तख्ता लगाकर छत बनाकर मिट्टी डालें, ताकि कुरान के पन्नों पर मिट्टी न गिरे। अगर क़ुरान गिर जाए तो कुछ सदक़ा कर दें और अल्लाह तआला से तौबा इस्तगफार करें, ताकि अल्लाह तआला माफ़ फरमाए।मसअला- सूराह इक़रा (अलक़) की क़ुरान की सबसे पहली सूरत नाज़िल हुई, जो मक्की है और इसमें 19 आयते हैं (तफसीर जलालैन- सफा 503)।मसअला- क़ुरआन में 30 पारे हैं, जो 32,3760 हरुफ़ हैं। 114 सूरते हैं। 540 रुकु हैं। 14 सजदे हैं। 6666 आयते हैं। 5320 ज़बर हैं। 39582 ज़ेरा हैं। 8804 पेश हैं। 105684 नुक़ते हैं (दीन मुस्तफ़ा स. 46)।मसअला- जब नमाज़ में इमाम वलदद्वालीन कहें तो आहिस्ता आमीन कहें, बेशक फरिश्ते भी आमीन कहते हैं और जिसकी आमीन फरिश्तों के मुवाफ़िक होगी अल्लाह तआला उसके अगले और पिछले गुनाह बख्श देगा (बेज़ावी शरीफ़ जिल्दे अव्वल स. 11)।

नमाज का बयान


नमाज का बयान-अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है ऐ मेरे प्यारे मेहबूब तुम कह दो ईमान वालों से निगेहबानी करो सब नमाजों की (यानी पाँच वक्त की फर्ज नमाज़ों को उनके वक्तों पर अरकानें शरायत के साथ अदा करते रहो) और बीच के नमाज़ की (हज़रत इमामे आज़म अबुहनीफा और जमहूर सहाबा रदियल्लाहोत आला अनहु का मजहब यह है कि इससे नमाज़े अस्र मुराद है) (कंज़ुल ईमाम तर्जुमा क़ुरान पारा 2 रुकु 15 सफ़ा 92)। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया के इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर है-इस बात की शहादत देना की अल्लाह तआला के सिवा कोई मअबूद नहीं और (हजरत) मोहम्मद मुस्तफा (सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम) उसके ख़ास बंदे और रसूल हैं।* नमाज़ क़ायम रखना।* जक़ात देना।* हज करना।* माहे रमजान के रोजे रखना। (बुख़ारी शरीफ जिल्दे अव्वल सफ़ा 6)प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने इरशाद फरमाया अगर किसी के घर के सामने नहर हो वह रोज़ (5) मर्तबा ग़ुस्ल करे तो क्या उसके बदन पर मैल रहेगा। सहाबा ने अर्ज़ की नहीं फ़रमाया यही मिसाल पाँच ऩमाज़ो की है। अल्लाह तआला नमाज़ों के सबब से सब खताओं को मिटा देता है और बंदा जब नमाज़ के लिए खड़ा होता है तो उसके लिए जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं। उसके लिए अल्लाह तआला के बीच के परदे हटा दिए जाते हैं और हूरें उसका इस्तक़बाल करती हैं।जब इन्सान सजदा करता है तो शैतान रोता हुआ भागता है और कहता है अफसोस कि इन्सान को सजदे का हुक्म हुआ उसने सजदा कर लिया उसको जन्नत मिली। मुझे सजदे का हुक्म हुआ मैंने इनकार किया और मुझे जहन्नुम मिली। और जब तुम्हारे बच्चे सात बरस के हो जाएँ तो उन्हें नमाज़ का हुक्म दो और जब दस (10) बरस के हो जाएँ तो मार के नमाज़ पढ़ाओ। (तिर्मिज़ी शरीफ जिल्दे 1 सफा 54 व इब्ने माजा शरीफ़ सफ़ा 58)हज़रत अबु ज़र गफ्फारी फ़रमाते हैं रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम सर्दियों के मौसम में बाहर तशरीफ ले गए। पतझड़ का मौसम था आप ने एक दरख्त की दो शाख पकड़कर कर उन्हें हिलाया पत्ते उनसे झड़ने लगे। आप ने फरमाया ऐ अबुजर मैंने अर्ज किया हाजिर हूँ। फ़रमाया जब मुसलमान बंदा नमाज़ पढ़ता है और अल्लाह तआला की रज़ामंदी का इजहार करता है तो उसके गुनाह इस तरह गिरते हैं जैसे इस दरख्त के पत्ते झड़ते हैं। (मिशकात शरीफ़ जिल्द अव्वल सफ़ा 58)।रसूलुुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया कि नमाज़ में मेरी आँखों की ठंडक रखी गई है और जन्नत की कुंजी नमाज़ है और नमाज़ की कुंजी तहारत है जिसने क़सदन (यानी बगैर किसी उज़र शरई के नमाज़ छोड़ दी) तो जहन्नुम के दरवाजे पर उसका नाम लिख दिया जाता है और उसका कोई दीन नहींनमाज़ दीन का सुतून है। क़यामत के दिन सबसे पहले बंदे से नमाज़ के बारे में पूछा जाएगा अगर उसकी नमाज़ें मुकम्मल हुईं तो उसके सारे आमाल क़ुबूल कर लिए जाएँगे और अगर नमाज़ मुकम्मल नहीं हुई तो उसके तमाम आमाल रद्द कर दिए जाएँगे। सबसे बुरा आदमी नमाज़ का चोर है। (मुकाशफ़ातुल कुलूब शरीफ स. 153)।हज़रत अबु बक़र सिद्दीक़ रदिअल्लाहो तआला अन्हु नमाज़ के वक्त फरमाते हैं ऐ लोगों अल्लाह ने तुम्हारे लिए जो आग लगाई है उठो और उसे नमाज़ के लिए बुझा दो। हज़रत अनस ने फ़रमाया शबे मैराज में सरकारे मदीना सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम के उम्मतियों पर पचास वक्त की नमाज़ें फ़र्ज की गईं, फ़िर कम की गईं। यहाँ तक की पाँच रह गईं। आवाज़ दी गई ऐ मेरे मेहबूब इन पाँच के अन्दर ही पचास का सवाब है (बुख़ारी शरीफ़ जिल्दे अव्वल स.50)।मसअला- हर आकिल, बालिग़ पर नमाज़ फ़र्ज है। उसकी फ़रज़ीयत का मुनकिर काफ़िर है और जान-बूझकर छोड़ दे अगर चे एक वक्त की हो वह फ़ासिक़ है। जो नमाज़ न पढ़ता हो उसे क़ैद में रखा जाए जब वह तोबा करके नमाज़ पढ़ने लगे तब रिहा किया जाए। इमाम मालिक, इमाम शाफई, इमाम अहमद के नजदीक सुलताने इस्लाम उसके क़त्ल का हुक्म दें।मसअला- किसी से नमाज़ पढ़ने को कहा उसने जवाब दिया नमाज़ तो पढ़ता हूँ पर उसका कुछ नतीजा नहीं या कहा तुमने नमाज़ पढ़ी क्या फायदा हुआ या कहा नमाज़ पढ़कर क्या करूँ किसके लिए पढ़ूँ माँ-बाप तो मर गए हैं या कहा बहुत पढ़ ली अब दिल घबरा गया है या कहा पढ़ना न पढ़ना दोनों बराबर है। गर्ज़ की इस क़िस्म की बातें करना जिससे फ़रज़ियत पर इनकार करना समझा जाता हो या नमाज़ की तौहीन हो यह कुफ्र है और ऐसा कहने वाला काफिर है। हिज़रत से पहले मेराज की रात में नमाज फर्ज हुई और जकात और जिहाद व रोज़ा 2 हिजरी में फ़र्ज़ हुए। (तफ़सीर नईमी जि. 5 स. 264)।

वुज़ू का बयान


वुज़ू का बयान-अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है ऐ ईमान वालों जब नमाज़ को खड़े होना चाहो (और तुम बे वुज़ू हो तो तुम पर वुज़ू फ़र्ज़ है और फ़राईजे वुजू चार हैं जो आगे बयान किए जाते हैं)तो अपना मुँह धोओ कुहनियों तक हाथ धोओ और चौथाई सरों का मसा करो और गट्टों तक पाँव धोओ (कंजूलईमान तर्जुमा क़ुरान पारा ६ रुकु ६ सफ़ा १७२)।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया क़यामत के दिन मेरी उम्मत इस हालत में बुलाई जाएगी कि मुँह, हाथ और पाँव आसारे वुज़ू से चमकते होंगे तो जिससे हो सके चमक ज्यादा करे और मुसलमान बंदा जब वुज़ू करता है तो कुल्ली करने से मुँह के गुनाह नीचे गिर जाते है। जब नाक में पानी डालकर साफ किया तो नाक के गुनाह निकल गए और जब मुँह धोया तो उसके चेहरे के गुनाह निकले। और जब सर का मसह किया तो सर के गुनाह निकले और जब पाँव धोए तो पाँव की खताएँ निकलें और फिर उसका मस्जिद को जाना और नमाज पढ़ना इसका भी सवाब अलग से मिलेगा।हमारेप्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम में जो कोई वुज़ू फिर पढ़े अशहदो अल्ला इलाहा इलल्लाहो वहदहू ला शरीका लहू व अश्हदु अन्ना मुहम्मदन अब्दहू व रसूलहू। उसके लिए जन्नत के आठों (८) दरवाज़े खोल दिए जाते हैं। जिस दरवाजे से चाहे दाखिल हो और मिसवाक का इस्तेमाल अपने लिए लाज़िम कर लो, क्योंकि मिसवाक से मुँह के पाकी और अल्लाह तआला की खुशी है। अगर मुझे अपनी उम्मत पर मशक्क़त और दुश्वारी का ख्याल न होता तो मैं मिसवाक करने को लाज़िम करार देता और मिसवाक करके नमाज़ पढ़ने की फ़जिलत सत्तर (७०) गुना ज्यादा है। बग़ैर मिसवाक के (मिश्कात शरीफ़ जि. १ स. १४५)।हज़रत अबु हुरेरा रदिअल्लाह अन्हो से रिवायत है कि रसूल्लुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया जो बे वुज़ू हो उसकी नमाज़ बग़ैर वुज़ू किए कुबूल न होगी (बुख़ारी शरीफ़ जिल्दे १ सफा २५)।

करबला में लिखी गई थी इस्लामी आतंकवाद की पहली इबारत


मोहर्रम का महीना तो दरअसल इस्लामिक कैलेन्डर के अनुसार वर्ष का पहला महीना होता है। परन्तु इसी मोहर्रम माह में करबला (इराक) में लगभग 1400 वर्ष पूर्व अत्याचार व आतंक का जो खूनी खेल एक मुस्लिम बादशाह द्वारा खेला गया, उसकी वजह से आज पूरा इस्लामी जगत मोहर्रम माह का स्वागत नववर्ष की खुशियों के रूप में करने के बजाए शोक व दुःख के वातावरण में करता आ रहा है। शहीद-ए-करबला हजरत इमाम हुसैन को अपनी अश्रुपूरित श्रद्घांजलि देने के साथ-साथ पूरी दुनिया में इस्लामी जगत के लोग उस सीरियाई शासक यजीद को भी लानत भेजते हैं, जिसने हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन व उनके 72 परिजनों को आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व मैदान-ए-करबला में फुरात नदी के किनारे तपती धूप में क्रूरतापूर्वक भूखा व प्यासा शहीद कर इस्लामी आतंकवाद की पहली इबारत लिखी थी।बडे दुःख का विषय है कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मोहम्मद द्वारा इस्लाम के रूप में परिचित कराए गए इस पंथ पर उन्हीं के अपने दौर में ही ग्रहण लगना शुरु हो गया था। हजरत मोहम्मद इस्लाम धर्म का पालन करने वाले मुसलमानों से ऐसी उम्मीद करते थे कि वे केवल एक अल्लाह के समक्ष नतमस्तक हों, चरित्रवान हों, पवित्र हों, एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भाव व सहयोग की भावना रखने वाले हों, दानी हों, छल-कपट, झूठ, मक्कारी, व्याभिचार, दुराचार से दूर हों। किसी दूसरे के माल व दौलत पर नजर न रखते हों, जुआ, शराब, हरामखोरी, हरामकारी जैसे दुव्र्यसनों से हरगिज वास्ता न रखते हों। ऐसी व ऐसी और तमाम विशेषताओं को धारण करने वाले व्यक्ति को हजरत मोहम्मद साहब एक सच्चे मुसलमान की श्रेणी में गिना करते थे। यही निर्देश उन्होंने अपने परिजनों को भी दिए थे। अतः उनके निर्देशों का पालन करना तथा हजरत द्वारा बताए गए इस्लामिक सिद्घान्तों पर हूबहू अमल करना उनके परिजन अपना कर्त्तव्य समझते थे।दूसरी ओर इस्लाम की उत्पत्ति के केंद्र मदीना से कुछ दूर सीरिया देश जिसे उस समय ‘शाम’ के नाम से जाना जाता था में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया का पुत्र यजीद जिसमें कि सभी अवगुण मौजूद थे, वह अपने पिता मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में शाम राज्य की गद्दी पर काबिज हो गया। इस्लामी इतिहास का वह पहला काला दिन था जिस दिन यजीद जैसे भ्रष्ट, चरित्रहीन व अत्याचारी शासक ने स्वयं को किसी इस्लामिक देश का बादशाह घोषित करने का दुस्साहस किया था। उधर हजरत मोहम्मद द्वारा चलाए गए पवित्र पंथ इस्लाम की रक्षा के लिए तथा इसे यजीद जैसे किसी अपशकुनी बादशाह से दूर रखने के लिए हजरत मोहम्मद का वह पहला घराना था जिसने यजीद जैसे दुष्ट क्रूर सीरियाई सुल्तान को किसी इस्लामी देश का इस्लामी शासक मानने से साफ इन्कार कर दिया था। यही कारण था जिसके चलते दसवीं मोहर्रम को करबला के मैदान में बेगुनाहों के खून की होलियां खेली गईं।क्रूरता का एक ऐसा इतिहास करबला के मैदान में यजीद के सेनापतियों व उसके सैनिकों द्वारा रचा गया जिसकी दूसरी मिसाल आज तक देखने व सुनने को नहीं मिली। एक ओर तो यजीद अपनी गुलाम महिलाओं, मां जैसी उम्र वाली गुलाम महिलाओं, अपनी ही बहनों व बेटियों तक से व्याभिचार करने में गर्व महसूस करता था। उसे शराब के नशे में खुदा से रुबरु होने अथवा नमाज पढने का ढोंग करने में आनन्द की अनुभूति होती थी। हजरत इमाम हुसैन तथा हजरत मोहम्मद का पूरा घराना यजीद के दुष्चरित्र से पूरी तरह परिचित था। केवल हजरत मोहम्मद का परिवार ही नहीं बल्कि पूरे इस्लामी जगत में उस समय यजीद की चरित्रहीनता की चर्चा होने लगी थी। यजीद जैसे आततायी व्यक्ति को इस्लामी देश के शासक के रूप में देखकर मुस्लिम जगत इसे इस्लाम धर्म पर एक बडे अपशकुन के रूप में देख रहा था। ऐसे क्रूर, दुष्ट एवं व्याभिचारी शासक को इस्लामी देश के शासक के रूप में अपनी स्वीकृति प्रदान कर देना हजरत मोहम्मद के नवासे व हजरत अली व फातिमा के बेटे हजरत हुसैन के लिए आखिर कहां सम्भव था।हजरत इमाम हुसैन ने यजीद को शाम के इस्लाम शासक के रूप में स्वीकृति प्रदान करने से इन्कार कर दिया। और हजरत हुसैन का यही इन्कार करबला की दर्दनाक घटना का तो कारण बना ही साथ-साथ करबला की यही घटना इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की ओर से दी गई महान कुर्बानी का भी एक सबब बनी। इतिहास साक्षी है कि दस मोहर्रम को करबला में यजीद की सेनाओं द्वारा हजरत हुसैन के 6 माह के बच्चे अली असगर, 18 वर्ष के जवान बेटे अली अकबर से लेकर 80 वर्ष के बुजुर्ग तक को तीरों व तलवारों से शहीद कर दिया गया। इतिहासकार बताते हैं कि करबला की घटना मई माह में घटित हुई थी। इराक में मई माह में पडने वाली गर्मी के विषय में आसानी से सोचा जा सकता है। आज भी वहां गर्मियों में दिन के समय सामान्य तापमान 50 डिग्री से अधिक ही होता है। सुना यह जाता है कि करबला के हादसे के समय प्राकृतिक रूप से कुछ ज्यादा ही गर्मी पड रही थी तथा फुरात नदी के किनारे की रेगिस्तानी जमीन आग की तरह तप रही थी। ऐसे भयंकर गर्मी के वातावरण में यजीदी फौजों द्वारा हजरत हुसैन व उनके सभी 72 साथियों के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से बलपूर्वक हटा दिया गया। इतना ही नहीं बल्कि तीन दिन तक इन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी गई। हजरत इमाम हुसैन की ओर से कुर्बानी देने आए इन 72 लोगों में दूध पीने वाले बच्चे से लेकर बुजुर्ग महिलाएं यहां तक कि हजरत हुसैन के एक पुत्र जैनुल आबदीन भी शामिल थे जोकि उन दिनों बहुत बीमारी की अवस्था से गुजर रहे थे।यजीद रूपी उस आतंकवादी शासक ने किसी पर भी कोई दया नहीं की। यदि हजरत मोहम्मद के परिवार के इन सदस्यों के कत्ल तक ही बात रह जाती तो भी कुछ गनीमत था। परन्तु यजीद ने तो करबला में वह कर दिखाया जिससे आज का यजीदी आतंकवाद भी कांप उठे। हजरत इमाम हुसैन व उनके पुरुष साथियों व परिजनों को क्रूरता के साथ कत्ल करने के बाद यजीद ने हजरत इमाम हुसैन के परिवार की महिला सदस्यों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। उनके बाजुओं पर रस्सियां बांधकर उन्ह बेपर्दा घुमाया गया। उसी जुलूस में आगे-आगे हजरत इमाम हुसैन उनके बेटों, भाई अब्बास व अन्य शहीदों के कटे हुए सरों को भाले में बुलंद कर आम लोगों के बीच प्रदर्शित किया गया। हजरत हुसैन की 4 वर्ष की बेटी सकीना को सीरिया के कैदखाने में कैद कर दिया गया जहां उसकी मृत्यु हो गई। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक ओर तो इस घटना से दुःखी होकर इस्लामी जगत यजीद के नाम पर थूक रहा था तथा उसके मुस्लिम शासक होने पर सवाल खडे कर रहा था तो वहीं दूसरी ओर यजीद अपने को महान विजेता समझता हुआ हुसैन के लुटे हुए काफिले को देखने वालों को यह भ्रमित करने की कोशिश कर रहा था कि यह हश्र उन लोगों का किया गया है जिन्होंने यजीद के शासन के विरुद्घ विद्रोह करने का साहस किया था। एक ओर तो सीरिया के बाजारों में हजरत हुसैन व उनके परिजनों की शहादत को लेकर कोहराम मचा था तो दूसरी ओर यजीद अपने दरबार में ठीक उसी समय शराब व ऐश परस्ती से भरपूर जश्न मना रहा था।बहरहाल इस दर्दनाक घटना को 1400 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं। हजरत इमाम हुसैन व उनके परिजनों द्वारा दी गई बेशकीमती कुर्बानी के फलस्वरूप इस्लाम आज दुनिया का दूसरा सबसे बडा पंथ माना जा रहा है। परन्तु यह भी एक कडवा सच है कि यजीदियत आज भी अपना फन उठाए हुए है। यजीदियत आतंकवाद के रूप में आज भी पूरे विश्व की शांति भंग करने का प्रयास कर रही है। कहना गलत नहीं होगा कि आज फिर यजीदियत को समाप्त करने के लिए हुसैनियत के परचम को बुलंद करने की जरूरत महसूस की जा रही है। अर्थात् आतंकवाद के आगे न झुकने के संकल्प की जरूरत, इसका मुंहतोड जवाब देने की जरूरत, इसे हरगिज आश्रय व प्रोत्साहन न देने की जरूरत तथा कदम-कदम पर इसका विरोध करने की जरूरत। और यदि जरूरत पडे तो इसके लिए बडी से बडी कुर्बानी देने के लिए भी तत्पर रहने की जरूरत। हुसैनियत का जज्बा ही इस्लाम पर लगते जा रहे ग्रहण से उसे बचा सकता है अन्यथा आतंकवाद के रूप में यजीदियत ठीक उसी प्रकार इस्लाम धर्म को निगल जाने के लिए बेताब है जैसे कि करबला में 1400 वर्ष पूर्व इस्लाम को आहत करने का एक प्रयास यजीदी विचाराधारा द्वारा किया गया था।कत्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यजीद है। इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद।