Thursday, January 17, 2008

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम का बयान

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम का बयान
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया कि जो शख्स 'बिस्मिल्लाह' पढ़ता हो तो अल्लाह तआला उसके लिए दस (10) हज़ार नेकियाँ लिखता है और शैतान इस तरह पिघलता है, जैसे आग में रांगा। हर ज़ीशान (अहम) काम जो 'बिस्मिल्लाह' से शुरू न किया जाए, वह नातमाम (अधूरा) रहेगा और जिसने 'बिस्मिल्लाह' को एक बार पढ़ा, उसके गुनाहों में से एक ज़र्रा भर गुनाह बाक़ी नहीं रहता और फ़रमाया जब तुम वुज़ू करो तो 'बिस्मिल्लाह वलहमदुलिल्लाह' कह लिया करो, क्योंकि जब तक तुम्हारा वुज़ू बाक़ी रहेगा, उस वक्त तक तुम्हारे फ़रिश्ते (यानी किरामन कातिबीन) तुम्हारे लिए बराबर नेकियाँ लिखते रहते हैं।हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया की कोई आदमी जब अपनी बीवी के पास आए तो कहे बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम ऐ अल्लाह हमको शैतान से महफूज रख और जो तू मुझे अता फ़रमाए उससे भी शैतान को दूर रख और कोई औलाद हो तो शैतान उसे भी नुकसान नहीं पहुँचा सकेगा (बुख़ारी शरीफ जिल्दे अव्वल सफ़ा 26)।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने शबे मेराज में चार (4) नहरें देखीं, एक पानी की, दूसरी दूध की, तीसरी शराब की और चौथी शहद की। आपने जिब्रीले अमीन से पूछा ये नहरें कहाँ से आ रही हैं, हज़रत जिब्रील ने अर्ज किया, मुझे इसकी ख़बर नहीं। एक दूसरे फ़रिश्ते ने आकर अर्ज़ की कि इन चारों का चश्मा मैं दिखाता हूँ।एक जगह ले गया, वहाँ एक दरख्त था, जिसके नीचे इमारत (मकान) बनी थी और दरवाज़े पर ताला लगा था और उसके नीचे से चारों नहरें निकल रही थीं। फ़रमाया दरवाज़ा खोलो अर्ज़ की इसकी कुंजी मेरे पास नहीं है, बल्कि आपके पास है। हूज़ुर ने 'बिस्मिल्लाह' पढ़कर ताले को हाथ लगाया, दरवाज़ा खुल गया।अंदर जाकर देखा कि इमारत में चार खंभे हैं और हर खंभे पर 'बिस्मिल्लाह' लिखा हुआ है और 'बिस्मिल्लाह' की 'मीम' से पानी, अल्लाह की 'ह' से दूध, रहमान की 'मीम' से शराब और रहीम की 'मीम' से शहद जारी है। अंदर से आवाज़ आई- ऐ मेरे महबूब! आपकी उम्मत में से जो शख्स 'बिस्मिल्लाह' प़ढ़ेगा, वह इन चारों का मुस्तहिक़ होगा। (तफ़सीरे नईमी जि। 1, स. 43) फ़िरऔन ने ख़ुदाई का दावा करने से पहले एक महल बनवाया था और उसके बाहरी दरवाज़े पर 'बिस्मिल्लाह' लिखवाया, लेकिन जब उसने ख़ुदाई का दावा किया तो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़िरऔन को अल्लाह पर ईमान लाने की दावत दी, उसने क़ुबूल नहीं की तो हज़रत मूसा अल्लैहिस्सलाम ने हलाकत (बर्बादी) की दुआ की। 'ऐ अल्लाह फ़िरऔन को हलाक (बर्बाद) फ़रमा जो बंदा होने के बावजूद मअबूद (खुदा) बना हुआ है। वही आई कि ऐ मूसा फ़िरऔन इस क़ाबिल है कि उसे हलाक कर दिया जाए, लेकिन मैं अपना नाम देख रहा हूँ। इसी वजह से फ़िरऔन के घर पर अज़ाब नहीं आया। अल्लाह ने उसे वहाँ से निकाल के दरियाए नील में डुबोया। इमाम फ़खरुद्दीन राज़ी फ़रमाते हैं कि जो अपने मकान के बाहिरी दरवाज़े पर 'बिस्मिल्लाह' लिख लिया, वह हलाकत से दुनिया में बेखौफ हो गया। ख्वाह का़फिर की क्यों न हो। (तफसीरे नईमी जि. 1, सं. 43)हज़रत ईसा अलैहिस्सलान एक क़ब्र से गुज़रे उस कब्र की मय्यत पर बहुत ़सख्त अज़ाब हो रहा था, यह देखकर चंद क़दम आगे तशरीफ़ ले गए और इसतन्जा फ़रमाकर वापिस आए तो देखा कब्र में नूर ही नूर है और वहाँ रहमते इलाही की बारिश हो रही है।आप बहुत हैरान हुए और बारगाहे इलाही में अर्ज़ की ऐ अल्लाह मुझे इससे आगाह फ़रमा। इरशाद हुआ ऐ ईसा यह शख्स ज्यादह गुनाह और बदकारी की वजह से अज़ाब में गिरफ्त था, लेकिन इसने अपनी हामेला बीवी छोड़ी थी। उसको लड़का पैदा हुआ और उसको मकतब (मदरसा) भेजा गया।उस्ताद ने उसको 'बिस्मिल्लाह' पढ़ाई हमें हया आई कि मैं ज़मीन के अंदर उस शख्स को अज़ाब दूँ, जिसका बच्चा ज़मीन पर मेरा नाम ले रहा है। नेक बच्चों की नेकी से वालदैन की निजात होती है (निजामे शरिअत सं. 37)।मसअला- बिस्मिल्लाह क़ुरान पाक की कुंजी है। बल्कि हर दुनियावी व दीनी जाइज़ काम की भी कुंजी है, जो काम उसके बग़ैर किया जाए, अधूरा रहता है।मसअला- बिस्मिल्लाह क़ुरान पाक की पूरी आयत है, मगर किसी सूरत का जुज हीं, बल्कि सूरतों में फ़ासेला करने के लिए उतारी गई है।मसअला- नमाज़ में इसको आहिस्ता से पढ़ते हैं, अलबत्ता जो हा़फिज़ तरावीह में पूरा क़ुरान पाक ख़त्म करे तो ज़रूरी है कि किसी सूरत के साथ बिस्मिल्लाह ज़ोर से पढ़े। हर जाइज़ काम बिस्मिल्लाह से शुरू करना मुस्तहब है।मसअला- जानवर ज़िबाह करते वक्त बिस्मिल्लाह पढ़ना वाजिब है। अगर जान-बूझकर छोड़ दिया तो जानवर का गोश्त खाना हराम होगा और अगर भूल से छूट गई तो हलाल है।मसअला- शराब पीने, ज़िना करने, चोरी करने, जुआ खेलने के लिए बिस्मिल्लाह पढ़ना कुफ्र है, जबके इन हराम कामों को करते वक्त बिस्मिल्लाह पढ़ना हलाल समझें (फतावा आलमगीरी जि. 2, स. 245)।

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