Thursday, January 17, 2008

किसे मिलता है दहशतगर्दी का फायदा


टेलीविजन और रेडियों पर अक्सर एक प्रोडक्ट का इश्तेहार आता है जिसमें बैकग्राउण्ड आवाज सुनाई देती है, ÷नाम ही काफी है।' लगता है कि किसी एडवरटाइजिंग कम्पनी का तैयार किया हुआ यह जुम्ला अब भारतीय जनता पार्टी और पुलिस ने दहशतगर्दी के मामलात में मुसलमानों पर पूरी तरह चस्पा कर दिया है। मुल्क के किसी भी कोने में दहशतगर्दी का कोई वाक्या पेश आते ही पुलिस बगैर कोई ताखीर किए सीद्दे एलान कर देती है कि इस वाक्ये में फलां ग्रुप का हाथ है, फिर कुछ मुस्लिम नाम मीडिया के जरिए मुल्क में फैला देती है। वाक्ये की तहकीकात शुरू होने के सालों बाद तक जहां कही कोई क्रिमिनल मुसलमान पुलिस के हाथों चढ़ता है तो यह एलान हो जाता है कि यह दहशतगर्द है और फलां जगह हुए बम द्दमाकों का मास्टर माइण्ड भी यही है। यह सिलसिला सालों चलता है तो भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की दीगर तंजीमों को आम हिन्दुओं में आम मुसलमानों के लिए नफरत का माहौल पैदा करने का मौका भी मिलता रहता है। सालों पहले मालेगांव की मस्जिद में बम द्दमाका हुआ था। अब तक मुल्क के मुख्तलिफ हिस्सों में पुलिस के जरिए जबरदस्ती फंसाए गए दर्जन भर से भी ज्यादा मुस्लिम नौजवानो को मालेगांव बम द्दमाके का मास्टर माइण्ड करार दिया जा चुका है। बम द्दमाकों के बाद पुलिस और मुख्तलिफ रियासतों की एसटीएफ चार, छः दस या उससे भी ज्यादा मुसलमानों को पकड़ कर उन्हें बुरी तरह जिस्मानी अजियतें (यातनाएं) देते है। अपने लोगों के जरिए लिखे बयानात पर दस्तखत करा लेते है। दावा यह किया जाता है कि बम द्दमाके या दहशतगर्दी के वाक्ये में मुलव्विस मुल्जिमान को पकड़ लिया गया है। उनके गरोह का सफाया कर दिया गया है। इन दावों के महीने दो महीने बाद फिर कोई वाक्या हो जाता है। कभी तो पुलिस की जवाबदेही तय करनी चाहिए। अगर महीना भर पहले किसी शहर में किसी दहशतगर्द गरोह का सफाया हो चुका होता है तो फिर अगला वाक्या कैसे हो जाता है? इससे तो यही जाहिर होता है कि अस्ल मुल्जिमान घूम-घूम कर दहशतगर्दी फैलाते रहते है और पुलिस कुछ बेगुनाहों को जेल में बंद रखती है। दहशतगर्दी और दहशतगर्दी के इल्जाम में पकड़े जाने वालों का बयान कभी अवाम में नही आ पाता, उन्हें किसी से मिलने नही दिया जाता। नतीजा यह कि उसी बात को सच समझ लिया जाता है जो पुलिस मीडिया के जरिए आम लोगों को बताती है। ऐसा भी नही है कि बेगुनाहों को जबरदस्ती दहशतगर्द बताकर जेलों में डालने वाले या उन्हें फर्जी इनकाउंटर में कत्ल करने वाले दरिन्दा किस्म के पुलिस वाले पकड़े नही जाते। कई बार ऐसे लोग पकड़े जाते है। पंजाब में तो इस किस्म का जुर्म करने वाले कई पुलिस अफसरान अभी भी जेल की हवा खा रहे है। जम्मू कश्मीर में किसी बेगुनाह को दहशतगर्द करार देकर कत्ल करने वाले सिक्योरिटी अफसर अक्सर पकड़े गए हैं। मुंबई के कई पुलिस अफसरान भी कत्ल के मुकदमें में फंस चुके हैं, लेकिन ऐसे मुजरिम जेहन पुलिस वालों या सिक्योरिटी फोर्सेज के अफसरान के साथ वैसा सुलूक कभी नही होता जैसा कि दहशतगर्दी के नाम पर पकड़े जाने वाले किसी बेगुनाह के साथ होता है।एक बड़ा और अहम सवाल यह है कि आखिर दहशतगर्दी के वाक्ए से फायदा किसे मिलता है? और क्या फायदा होता है। गुजरात एलक्शन के बाद तो यह बात खुलकर सबके सामने आ चुकी है कि इस किस्म के वाक्यात का अस्ल सियासी फायदा सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को मिलता है और जिस किसी वाक्ए का फायदा बीजेपी को खुद ब खुद नही मिल पाता उसका फायदा बीजेपी जबरदस्ती छीनकर हासिल करना चाहती है। इकत्तीस दिसम्बर की रात में रामपुर के सीआरपीएफ कैम्प पर हमला हुआ, फौरन ही भारतीय जनता पार्टी ने रामपुर, फिर फैजाबाद, गोरखपुर, बनारस और लखनऊ में दहशतगर्दी मुखालिफ रैलियां करने का एलान कर दिया। अव्वल तो रैलियों के जरिए मुल्क में पनप रही दहशतगर्दी का मुकाबला नही किया जा सकता। दूसरे यह कि बुजदिलों की भीड़ इकट्ठा करके मसले का हल तलाश नही किया जा सकता। इस किस्म की रैलियों से सिर्फ और सिर्फ आम हिन्दुओं में आम मुसलमानों के लिए नफरत पैदा करने का ही काम किया जा सकता है। हमें तो शक ही नही यकीन है कि मुल्क में दहशतगर्दी की कार्रवाईयां वही लोग और वही ताकतें करा रही है जो ताकतें बाद में इन वाक्यात से सियासी फायदा उठाने की कोशिश करती हैं और फायदा उठा भी लेती हैं। रामपुर और उत्तर प्रदेश के दीगर शहरों में हुए दहशतगर्दी के वाक्यात के बाद तो आडवानी और राजनाथ सिंह अपनी पूरी टीम के साथ रैलियां करने निकल पड़े लेकिन उनकी अपनी पार्टी की सरकार वाली रियासत छत्तीसगढ़ में आए दिन दर्जनो पुलिस वाले मारे जाते है, जेल तोड़ कर मुजरिम फरार हो जाते हैं। पुलिस थानों पर हमला करके नक्सली थाने के पूरे के पूरे अमले को मौत के घाट उतार देते हैं। वहां नक्सलियों के खिलाफ आज तक बीजेपी ने एक भी रैली क्यों नही की? जैसा हमने कहा कि गुजरात में बीजेपी और इसके इंसानियत मुखालिफ वजीर-ए-आला नरेन्द्र मोदी ने असम्बली एलक्शन में सिर्फ मुस्लिम मुखालिफ नफरत फैलाकर एलक्शन जीता है। कांग्रेस सदर सोनिया गांद्दी ने गुजरात हुकूमत को मौत का सौदागर कहा था और बिल्कुल ठीक कहा था। इसके फौरन बाद नरेन्द्र मोदी ने अपना दरिन्दगी भरा चेहरा छुपाने के लिए फौरन सोहराबउद्दीन का मसला छेड़ दिया। सोनिया गांद्दी ने तो सोहराबउद्दीन का नाम नहीं लिया था। फिर नरेन्द्र मोदी ने सोनिया के इल्जाम का जवाब देने के बजाए सोहराबउद्दीन का मसला क्यों छेड़ा? क्योंकि उसी के सहारे वह मिडिल क्लास गुजराती हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करके उनका वोट लूटना चाहते थे। इस काम में वह कामयाब भी हुए। इसीलिए हम बार बार मतालबा करते है कि जब तक दहशतगर्दी के वाक्यात की तहकीकात सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को निशाना बनाकर की जाती रहेगी। दूसरे पहुलओं पर भी गौर नही किया जाएगा, उस वक्त तक दहशतगर्दी पर काबू पाना किसी भी हालत में मुमकिन नही हो सकेगा।हम यह नही कहते कि दहशतगर्दी के वाक्यात में कोई मुसलमान मुलव्विस ही नही होता है। जरूर होते होंगे, लेकिन सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही इन वाक्यात में मुलव्विस होते है इस बात पर हम कभी भी यकीन नही कर सकते। कोयमबटूर में एक ट्राफिक पुलिस सिपाही के कत्ल के बाद जो कुछ हुआ था और गोद्दरा में ट्रेन हादसे के बाद पूरे गुजरात में जो कुछ हुआ, उन वाक्यात पर नजर डालने से यकीनी हो जाता है कि आरएसएस ने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के नाम पर जो नई पौद्द तैयार की है वह हर बुरे से बुरा जुर्म कर सकती है। भारतीय पुलिस का आम ख्याल होता था कि चाकूबाजी की हरकत सिर्फ मुसलमान ही कर सकता है। मुंबई में सन् बान्नबे (१९९२) में हुए मुस्लिम मुखालिफ फसादात हो, पूरे गुजरात में मुसलमानों की नस्लकुशी के वाक्यात हो, कोयम्बटूर के फसाद हो या मेरठ और गाजियाबाद के वाक्यात अब तो सबके सामने है कि चाकूबाजी, तलवारबाजी और इंसानों को जिंदा जलाने जैसी वहशियाना हरकतें कौन कर रहा है? जिस मजहब की बुनियादी तालीम रवादारी (सहिष्णुता) हो, जहां चिड़िया तक मारना मना हो, उस मजहब की ठेकेदारी का दावा करने वाले कुछ लोग अगर किसी हामिला (गर्भवती) खातून का पेट फाड़कर बच्चे को तलवार की नोक पर उछालने, फिर मां और पैदा होने से पहले ही बच्चे को आग में झोंक दे तो ऐसा करने वाले बम भी फाड़ सकते हैं। सीआरपीएफ कैम्प या पुलिस पर हमला भी कर सकते हैं, चलती ट्रेनों को आग के हवाले भी कर सकते है और दुनिया का हर बुरा काम कर सकते है। इसलिए पुलिस को चाहिए कि अपनी तहकीकात का फोकस थोड़ा घुमाकर भी देखे, शायद ज्यादा कामयाबी मिलेगी। जहां तक मुसलमानों का सवाल है तो दहशतगर्दी के किसी भी वाक्ये से किसी भी मुसलमान, मुस्लिम तंजीम को किसी किस्म का कोई फायदा नही है। न ही कोई मुसलमान कभी इस तरह का फायदा उठाने की बात अपने जेहन में ही लाता है। दूसरी तरफ संघ परिवार है जो दहशतगर्दी के हर वाक्ये के बाद अपने वोटों में इजाफा करने की कोशिशों में मसरूफ हो जाता है।दहशतगर्दी के वाक्यात से भारतीय जनता पार्टी जो सियासी फायदा उठाने की मुहिम चलाती है, मुल्क की पुलिस भी इस काम में उसकी भरपूर मदद करती रहती है। मसलन कहीं बम द्दमाका हुआ नही कि पुलिस फौरन दो चार मुस्लिम नाम मीडिया में लीक करके ही तहकीकात शुरू करती है। यह बिल्कुल फितरी (स्वाभाविक) बात है कि बार बार अगर बम द्दमाकों में मुसलमानों का ही नाम लिया जाता है तो उसे सुन सुन कर बड़ी तादाद में उन हिन्दुओं के जेहन भी मुस्लिम मुखालिफ होने लगते है जिन हिन्दुओं का भारतीय जनता पार्टी या फिरकापरस्ती से कुछ लेना देना नही है। रामपुर के ही वाक्ए को देखे सीआरपीएफ कैम्प पर हमले के अगले ही दिन पुलिस ने मीडिया में यह खबर प्लांट करा दी कि कण्ट्रोल रूम नम्बर दो में तैनात एक सिपाही तो हमलावरों की गोली का शिकार होकर शहीद हो गया, लेकिन उसी रूम में तैनात जावेद अहमद बच गया, हो न हो जावेद और कैम्प में शामिल उन अरसठ सिपाहियों ने ही दहशतगर्दो से मिलकर यह हमला कराया हो जो पहले कभी दहशतगर्द थे। सालों पहले उन्होंने हथियार डाल दिए थे। खुद फौज के हवाले कर दिया था, फिर उन्हें सीआरपीएफ में भर्ती कर लिया गया। यह सवाल ही अपने आप में अजीब है कि जब दो जवान कण्ट्रोल रूम मे तैनात थे एक क्यों मरा जावेद क्यों नही मरा? पहली बात तो यह कि उसकी मौत नही थी, नही मरा, दूसरे यह कि जान बचाने की कोशिश तो दोनो ने की होगी, दूसरा अपनी कोशिश में कामयाब नही हो सका। ऐसा तो मुमकिन ही नही है कि रात के अंद्देरे में कैम्प पर हमला हो तीन साढ़े तीन मिनट में हमलावर अपना काम करके फरार हो जाए और अंद्देरे में भी गोली चलाते वक्त यह ख्याल रखे कि उनकी गोली जावेद अहमद को न लगाने पाए क्योंकि वह अपना मुस्लिम भाई है। सीआरपीएफ का कहना है कि अब तक जितने भी सरेण्डर शुदा कश्मीरी जवानों को सीआरपीएफ या दीगर फोर्सेज में भर्ती किया गया उनमें से एक भी बाद में गद्दार नही निकला और न ही किसी ने दोबारा अपनी पुरानी जरायम की दुनिया में लौटने का जुर्म किया है। सवाल यह है कि अगर जावेद अहमद को पूछगछ के लिए रामपुर से लखनऊ या दिल्ली कहीं ले जाया गया था तो पूछगछ मुकम्मल होने और उस पर हुए शक का यकीन होने से पहले उसका नाम मीडिया में क्यों उछलवाया गया। जवाब एक ही है कि उसका नाम उछलवाकर बड़ी तादाद में सेक्युलर जेहन हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत का जहर पैदा करना था, बाकी कुछ नही। इस काम में एक अंग्रेजी अखबार ने भी बहुत ही गलत तरीका अख्तियार किया। इस अखबार ने रामपुर कैम्प में मारे गए सभी जवानों की तस्वीरें और उनके बारे में थोड़ी थोड़ी तफसील शाया (प्रकाशित) की, लेकिन इस हमले में मारे गए हेड कांस्टेबिल अफजाल अहमद की न तस्वीर छापी और न ही उसकी कोई तफसील। इसका क्या मतलब निकाला जाना चाहिए।

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