

इंसान की तखलीक का मकसद क्योंकि अल्लाह की इबादत है। इसलिए हर तरह की इबादत का इंसानों को पाबंद बनाया गया। चाहे वह बदनी इबादत हो या माली इबादत या रूहानी इबादत। नमाज के जरिये बदनी इबादत का मकसद हासिल होता है, रोजा से रूहानी इबादत का मकसद हासिल होता और और जकात से माली इबादत का मकसद हासिल होता है और हज से बदनी, माली और रूहानी हर किस्म की इबादत का मकसद हासिल होता है। गोया अगर कोई शख्स सिर्फ बदनी इबादत में मशगूल रहता है और रूहानी इबादत नही करता तो इबादत का मकसद पूरा नही होता। इसलिए नमाज के साथ मुतअय्यना दिनों में रोजा रखना भी जरूरी है। ऐसे में बदनी व रूहानी इबादत के साथ माली इबादत के बिना भी इबादत की तकमील नही होती। इसलिए जो इसकी इस्तताअत रखते हैं उनके लिए जरूरी है कि वह जकात की अदायगी भी करें। ऐसे ही मामला हजे बैतुल्लाह का है कि अगर किसी के पास सफरे हज की इस्तताअत और खाने-पीने के अखराजात हों उस पर हजे बैतुल्लाह लाजिम हो जाता है यानी ऐसी इबादत करना जो बदन, माल और रूहानियत सबको समेटे हो।
नमाज, रोजा और हज की तरह ÷जकात' भी मुसलमानों पर फर्ज है मगर साहबे निसाब होना शर्त है। जकात के फर्ज होने के बावजूद भी अगर जकात न दी गई तो पूरा निजाम दरहम बरहम हो जाएगा। वह लोग जो गरीबी की हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं जिनके पास रोजी रोटी के हुसूल के जराये नही है जो अपाहिज व माजूर है जो अपने घर से दूर बहुत दूर है, जहां न उनका कोई दोस्त है न ही रिश्तेदार। जो अल्लाह के रास्ते में लड़ रहे हैं उनका क्या होगा? गरीबों और जरूरतमंदों का जो खासी तादाद दुनिया भर में है उन्हें सहारा देने के लिए लिए सिर्फ ÷जकात' का ही मुस्तहकम निजाम है। जकात की अदायगी अमीर लोगों का तआवुन करती है। उनके मालों व सामानों को पाक कर देती है तरह-तरह की परेशानियों से उन्हें निजात दिला देती है और उनकी रकम व दौलत को महफूज कर देती है। इसलिए अल्लाह तआला ने जकात के निजाम को फलाहयाबी का जरिया बताया है। अल्लाह तआला फरमाता है-÷बिला शुब्हा फलाहयाब हो गए ईमान वाले जो अपनी नमाजों में खुलूस अख्तियार करते हैं फुजूल की बातों से मुंह मोड़ते है और जकात के तरीके पर आमिल होते हैं। (कुरआन)

जकात हर उस मुसलमान पर फर्ज है जो साहबे निसाब हो और उस पर एक साल गुजर चुका हो। निसाब की मिकदार जरूरत के सामान के अलावा सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी या इसके बराबर रूपये पैसे होना है। जकात की मिकदार कुल माल में से चालीसवां हिस्सा यानी ढाई फीसद हो।समाज में बहुत से ऐसे लोग भी है जो जकात पूरी पाबंदी के साथ निकालते है और पूरी निकालते हैं। अल्लाह तआला उनको अज्र अजीम अता फरमाएगा। अल्लाह का इरशाद है- ÷जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में खर्च करते हैं उनके खर्च की मिसाल ऐसी है कि जैसे कि एक दाना बोया जाए और उससे सात बालियां निकलें और हर बाली में सौ दाने हों। इस तरह अल्लाह जिसके अमल को चाहता है, बढ़ा देता है वह फराखदसत और अलीम है।' (बकरा) मगर इस हकीकत से भी इंकार नही किया जा सकता है कि कुछ लोग जकात की अदायगी से जान चुराते हैं कुछ लोग जकात देते हैं मगर कम देते हैं जबकि कुछ लोग आजकल करके टालमटोल करते हैं ताकि उनको जकात ही न देनी पडे+ या फिर अदा करते है मगर नागवारी और तंगदिली के साथ, यह सारी बातें इंतिहाई खतरनाक हैं।जकात अदा न करने वाले के लिए दर्दनाक अजाब है। नागवारी या बुरा भला कहकर जकात देने से भले ही उसके जिम्मे से फर्जियत साकित हो जाती है लेकिन उससे कारोबार की सारी बरकत जाती रहती है।जकात क्योंकि अहम तरीन इबादत है। इसलिए इसको पूरे अदब व एहतियात के साथ अदा किया जाए। ऐसा न हो कि इसको गैर इस्लामी तरीके से दिया जाए कि इस पर खातिरख्वाह सवाब ही न मिल सके। जकात देते वक्त नियत को खालिस कर लिया जाए। इसमें किसी तरह की मिलावट बाकी न करे। जकात देने वाले के दिल में यह ख्याल होना चाहिए कि वह यह सब कुछ अल्लाह की रजा के लिए कर रहा है न कि किसी तरह के दिखावे के लिए। इसलिए जकात का मकसद अल्लाह की खुशनूदी हासिल करना ही तो है। जैसा कि कुरआन में बयान किया गया है ÷और जो कुछ तुम खर्च करते हो। इसीलिए तो करते है कि खुदा की खुशनूदी हासिल हो। (बकरा) जकात देते वक्त इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि जकात अपनी हलाल कमाई से दी जाए, यह नही कि हराम तरीके से कमाए हुए रूपयों को जकात के तौर पर अदा किया जाए। इस्लामी तालीमात ऐसा करने से मना करती है। नबी करीम (सल०) ने फरमाया- ÷अल्लाह पाक है और वह सिर्फ वही सदका कुबूल फरमाता है जो पाक माल से दिया गया हो।' (मुस्लिम) जकात की अदायगी के वक्त इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है कि जो माल जकात के तौर पर अदा किया जाए वह साफ सुथरा हो। यह न किया जाए कि छांट कर गला सड़ा माल दे दिया जाए। ऐसा करना बाइसें गुनाह है। अल्लाह का इरशाद है- ऐसा न हो कि (खुदा की राह में) चीजें छांटने लगो।' (बकरा)
मौलाना असरार उल हक
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