Thursday, January 17, 2008

हज़रत इमाम हुसैन संक्षिप्त जीवन परिचय

हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की ज़िन्दगीहज़रत इमाम हुसैन (अ.) हज़रत अली (अ.) व हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) के दूसरे बेटे हैं। वह सन् चार हिज़री क़मरी में तीन शाबान को पैदा हुए। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) उनके पैदा होने की ख़बर मिली तो वह हज़रत अली (अ.) के घर आये और बच्चे को मँगाया। असमा बच्चे को एक सफ़ेद कपड़े में लपेट कर लाई और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की गोद में दे दिया। पैग़मेबरे इस्लाम (स.) ने उनके दाहिने कान में अज़ान व बायें कान में इक़ामत कही। पैदाइश के पहले या सातवें दिन जिब्रईले अमीन नाज़िल हुए और कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल ! आप पर अल्लाह का सलाम हो। इस बच्चे का नाम हारून के छोटे बच्चे के नाम पर शब्बीर रखना। क्योंकि अली आपके लिए हारून बिन मूसा की मिस्ल है, इस फ़र्क़ के साथ कि आपके बाद कोई नबी नही है। शब्बीर को अरबी में हुसैन कहते हैं। इस तरह हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) के दूसरे बेटे का नाम अल्लाह की तरफ़ हुसैन रखा गया।पैदाइश के सातवें दिन अक़ीक़ा हुआ, एक भेड़ ज़बह की गई और बच्चे के सिर के बाल काटे गये और उनके वज़न के बराबर चाँदी सदक़ा दी गई।
हज़रत इमाम हुसैन (अ.) व प़ैग़म्बरे इस्लाम (स.)हज़रत इमाम हुसैन (अ.) बिन हज़रत अली (अ.) सन् चार हिजरी क़मरी में पैदा हुए और इसके छः साल व कुछ महीनों के बाद प़ैग़म्बरे इस्लाम (स.) की वफ़ात हुई। इस दौरान प़ैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) से जिस तरह मुहब्बत की उससे लोग तीसरे इमाम हज़रत हुसैन (अ.) की अज़मत से अच्छी परिचित हो गये। सलमाने फ़ार्सी कहते हैं कि मैंने देखा है कि पग़ैम्बरे इस्लाम (स.) ने इमाम हुसैन (अ.) को अपने ज़ानू पर बैठा रखा था और कह रहे थे "आप ख़ुद मोहतर हो, मोहतरम बाप के बेटे हो और मोहतरम बेटों के बाप हो, आप इमाम हो, इमाम के बेटे हो और इमामों के बाप हो। आप अल्लाह की हुज्जत हो, अल्लाह की हुज्जत के बेटे हो, और अल्लाह की हुज्जत के बाप हो, आपके नौ बेटे अल्लाह की हुज्जत होंगे जिनमें से आख़िरी क़ाइम (इमामे ज़मान (अज.) होगा।" अनस बिन मालिक कहते हैं कि जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से पूछा गया कि आप अपने अहलेबैत में से सबसे ज़्यादा किसे चाहते हो तो उन्होंने जवाब दिया कि हसन व हुसैन को। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) अक्सर हसन व हुसैन को सीने से लगाकर प्यार करते थे। अबू हुरैरा जो कि मुआविया आदमी है और अहलेबैत अलैहिमुस सलाम का दुश्मन है, वह भी इस बात को कहता है कि " मैंने देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हसन व हुसैन को अपने काँधों पर बैठाये हुए हमारी तरफ़ आ रहे थे, जब वह हमारे पास पहुँचे तो कहा कि जिसने मेरे इन दोनों बेटों से मुहब्बत की उसने मुझसे मुहब्बत की और जिसने इन से दुश्मनी की उसने मुझसे दुश्मनी की।" पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को हज़रत इमाम हुसैन (अ.) से जो राब्त व मुहब्बत थी उसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के इस जुमले से समझा जासकता है "हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ। "
हज़रत इमाम हुसैन (अ.) अपने बाबा के साथ हज़रत इमाम हुसैन (अ.) छः साल तक पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के साथ रहे और उनके इन्तेक़ाल(स्वर्गवास) के बाद 33 साल अपने बाबा अली ए मुर्तज़ा के साथ रहे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम वह इंसान थे जो इंसाफ़ के साथ हुक्म करते थे और पाकीज़गी के साथ इबादत। उन्होंने अल्लाह के अलावा किसी पर नज़र नही जमाई, अल्लाह के अलावा किसी को नही चाहा और अल्लाह के अलावा किसी को नही पाया। उन्हें अपनी हुकूमत के दौरान एक पल के लिए आराम नही लेने दिया, जिस तरह उनसे उनका ख़िलाफ़त का हक़ छीनते वक़्त उनको सताया गया था। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उन तमाम हालात में दिल व जान से अपने बाबा की इताअत (अज्ञा पालन) करते थे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के ज़माने में वह अपने बड़े भाई हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की तरह इस्लाम के उद्देश्यो की प्राप्ति के लिए भर पूर कोशिश करते थे। वह जंगे जमल, सिफ़्फ़ीन व नहरवान में शरीक हुए और इस्लाम व अपने बाबा की हिमायत(समर्थन) की। वह कभी कभी आम लोगों में बैठ कर ख़िलाफ़त ग़स्ब करने वालों पर एतेराज़ भी करते थे। उमर की हुकूमत के ज़माने में जब एक दिन हज़रत इमाम हुसैन (अ.) मस्जिद में गये तो देखा कि उमर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के मिम्मबर पर बैठा हुआ तक़रीर कर रहा है तो यह देख कर उन्होंने बग़ैर किसी घबराहट के चिल्ला कर उमर से कहा कि मेरे बाबा के मिम्मबर से नीचे उतरो।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने भाई के साथ हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद, पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व हज़रत अली की वसीयत के अनुसार शियों के इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्लाम बने और तमाम लोगों पर उनके हुक्म पर अमल करना वाजिब हो गया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जो कि नबूवत व इमामत की गोद में परवान चढ़े थे, हर हालत में अपने भाई के साथ रहे। अतः जब हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम, इस्लाम व मुसलमानों के फ़यदे के लिए, अल्लाह के हुक्म से, मुआविया के साथ सुलह(संधि) करके परेशानियाँ बर्दाश्त करने पर मजबूर हो गये तो हज़रत इमाम हसन उसमुश्किल वक़्त में भी अपने भाई के साथ रहे क्योंकि वहजानते थे कियह सुलह इस्लाम व मुसलमानों के हक़में है। लेकिन जब मुआविया ने हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैनअलैहिस्सलाम की मौजूदगी में अपनी गंदी ज़बानसे हज़रत इमाम हसन(अ.) व हज़रत अली (अ.) को बुरा कहना शुरू किया तो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने बचाव शुरू किया ताकि मुआविया को झूठा साबित करके उसके आमालकी सज़ा दे सकें। लेकिन हज़रत इमामहसन अलैहिस्सलाम ने उन्हें ख़ामौश रहने के लिए कहा तो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ख़ामौश हो कर अपनी जगह पलट गये। उस वक़्तहज़रतिमामहसन अलैहिस्सलाम ने ख़ुद मुआविया को जवाब दिया और अच्छे अन्दाज़ में अपनी बात कह कर उसे लाजवाब कर दिया। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) मुआविया के ज़माने में जब हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की शहादत हुई तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हज़रत अली (अ.) के कहने के अनुसार, हज़रत इमाम हसन (अ.) की वसीयत से शियों के इमाम हज़रत इमाम हुसैन (अ.) बने और अल्लाह की तरफ़ से समाज की रहबरी की ज़िम्मेदारी उनके काँधों पर आ गई। हज़रत इमाम हुसैन(अ.) ने देखा कि मुआविया इस्लामी हुकूमत पर क़बज़ा किये हुए है और ताक़त के बल बूते पर इस्लामी समाज और अलाही क़ानून को मिटाने की कौशिश में लगा। वह मुआविया की हुकूमत से सख़्त नाराज़ थे, लेकिन ताक़त जमा करके उसके ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाने की हालत में नही थे, क्योंकि उनके भाई हज़रत इमाम हसन (अ.) के सामने भी कुछ ऐसी ही हालत थी। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) जानते थे कि अगर वह अपने इरादे को ज़ाहिर करके ताक़त जमा करना शुरू करेंगे तो कोई अच्छा क़दम उठाने से पहले ही क़त्ल कर दिये जायेंगे। अगर वह कोई ऐसा क़दम उठाते तो धोके से क़त्ल कर दिये जाते और इस क़त्ल से कोई फ़यदा भी न होता, इस लिए उन्होंने सब्र से काम लिया।अतः हज़रत इमाम हसन (अ.) की ज़िन्दगी में उन्होंने मुआविया के ख़िलाफ़ कोई काररवाई नही की, बस वह मुआविया के कार्यों व हरकतों पर टिप्पणी करते रहते थे और लोगो को समझाते रहते थे कि आने वाले वक़्त में कोई अच्छा क़दम उठाया जायेगा। जब मुआविया अपनी ज़िन्दगी में अपने बेटे यज़ीद के लिए लोगों से बैअत ले रहा था तो हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने उसकी सख़्त मुख़ालेफ़त की। उन्होने यज़ीद की बैअत नही की और मुआविया के बाद यज़ीद को उसके उत्तराधिकारी के रूप में क़बूल नही किया। उन्होंने मुआविया को सख़्त बातें कहीं और ख़त लिखा। मुआविया ने भी यज़ीद के लिए उनसे बैअत लेने में ज़िद नही की और मुआविया के मरने तक हज़रत इमाम हुसैन (अ.) उसी तरह रहे।
हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का क़ियाम मुआविया के मरने के बाद यज़ीद इस्लामी हुकूमत के तख़्त पर बैठा और उसने अपने आपको अमीरुल मोमेनीन कहलवाना शुरू किया। उसने अपनी अनूचित व अवैध हुकूमत की मान्यता प्राप्ति के लिए, उस समय की इस्लामी समाज के उच्च लोगों को ख़त लिखे और उनसे अपनी बैअत माँगी। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने मदीने के गवर्नर को एक ख़त भेजा जिसमें लिखा था कि तू हुसैन से मेरी बैअत ले और अगर बैअत करने से इंकार करे तो उन्हें क़त्ल करदे। मदीने के गवर्नर ने यह ख़बर हज़रत इमाम हुसैन(अ.) तक पहुँचाई और उनसे जवाब माँगा। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) जवाब दिया कि जब यज़ीद जैसा (शराबी,जुएबाज़, बेईमान, जो ज़ाहिर में भी इस्लाम की रियायतन नही करता) इंसान इस्लामी हुकूमत के तख़्त पर बैठे तो फिर इस्लाम की फ़ातेहा पढ़ देनी चाहिए, क्योंकि इस तरह के लोग, इस्लाम को, इस्लाम के नाम पर, इस्लामी ताक़त से ही मिटा रहे है। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) जानते थे कि चूँकि मैंने यज़ीद की हुकूमत को क़बूल नही नही किया है, इस लिए अगर मदीने में रहा तो क़त्ल कर दिया जाऊँगा। अतः वह अल्लाह के हुक्म से, रात के वक़्त छुप कर मदीने से मक्के की तरफ़ चल पड़े। उनके मक्के पहुँचने पर, मक्के और मदीने के लोगों में मशहूर हो गया कि उन्होंने यज़ीद की बैअत करने से इंकार कर दिया है। वहाँ से यह ख़बर कूफ़े भी पहुँची गई। कूफ़े के लोगो ने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) को मक्के से कूफ़े आने की दावत (निमन्त्रण) दी और लिखा कि आप यहाँ आकर हमारी इमामत करें। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने अपने चचा के बेटे मुस्लिम इब्ने अक़ील को कूफ़े भेजा ताकि वह वहाँ रह कर कूफ़ियों की हालत को क़रीब से देखे और उन्हें उससे अवगत करायें। जब हज़रत मुस्लिम (अ.) कू़फ़े पहुँचे तो वहाँ पर उनका बहुत ज़्यादा आदर स्तकार व स्वागत किया गया। इमाम के नुमाइन्दे की हैसियतसे हज़ारों लोगों ने उनकी बैअत की यह देख कर उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) को ख़त लिखा कि आपका यहाँ आना बहुत ज़रूरी है। अतः आप फ़ौरन कूफ़े तशरीफ़ ले आइये।हज़रत इमाम हुसैन (अ.) कूफ़ियों को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने अपने बाबा व भाई की हुकूमत के दौरान कूफ़ियों की बेवफ़ाइ व बेदीनी को देख लिया था। इस लिए वह मुसलिम के हाथों पर उनकी बैअत व उनके वादों पर इतमिनान नही कर सकते थे। लेकिन उन्होंने, उन पर हुज्जत तमाम करने और अल्लाह के हुक्म पर अमल करने के लिए कूफ़े जाने का इरादा किया।अतः आठवीं ज़िल्हिज्जा को जब सब लोग मक्के से मिना की तरफ़ जा रहे थे और जो मक्के के रास्ते में था वह जल्दी से जल्दी से मक्के पहुँचने की फ़िक्र में था, उस वक़्त हज़रत इमाम हुसैन (अ.) अपने दोस्तों व बीवी बच्चों के साथ मक्के से इराक़ की तरफ़ चल पड़े। उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और दुनिया के मुसलमानों को अच्छी तरह समझा दिया कि पैग़म्बर की औलाद हुसैन, यज़ीद की हुकूमत को सही (वैध) नही मानते हैं,उन्होंने उसकी बैअत नही की है, बल्कि उसके ख़िलाफ़ क़ियाम किया है। जब यज़ीद को हज़रत मुस्लिम (अ.) के कूफ़े पहुंचने और उनके हाथो पर कूफ़ियों की बैअत की ख़बर मिली तो उसने इब्ने ज़्याद को (जो कि बनी उमैया की हुकूमत का सबसे बड़ा तरफ़दार और यज़ीद का सबसे बड़ा हमदर्द था) अपना गवर्नर बना कर कूफ़े भेजा। इब्ने ज़्याद ने कूफ़े के लोगों के ईमान की कमज़ोरी, मुनाफ़ेक़त और डरने की आदत से फ़ायद उठाया। उसने उन्हें डरा धमका कर हज़रत मुस्लिम से अलग कर दिया। जिसके नतीजे में हज़रत मुस्लिम को तन्हा ही इब्ने ज़्याद की फ़ौज का सामना करना पड़ा और वह बहादुरी के साथ लड़ते हुए शहीद हो गये। (उन पर अल्लाह की रहम तो)। इब्ने ज़्याद ने मुनाफ़िक़ व बेईमान कूफ़ी समाज को हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के ख़िलाफ़ उकसाया दिया जिसके नतीजे में वही लोग जिन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) को कूफ़े आने लिए ख़त लिखे थे, उन्होंने अपने हाथों में हथियार उठा लिए और हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के आने का इन्तेज़ार करने लगे ताकि उन्हें क़त्ल कर सकें। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने मदीने से चलते वक़्त, मक्के में, मक्के और कर्बला के रास्ते में और शहादसे पहले कभी इशारों में और कभी ख़ुल कर कई बार यह कहा कि " मेरा मक़सद, यज़ीद की ग़ैरे इस्लामी हुकूमत को ज़लील करना, अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर (लोगों को अच्छाइयों की तरफ़ बुलाना और बुराईयों से रोकना) करना और ज़ुल्म व सितम के ख़िलाफ़ जंग करना है। क़ुरआन की हिमायत व दीने मुहम्मद को ज़िन्दा रखने के अलावा मेरा कोई दूसरा मक़सद नही है।" यह ज़िम्मेदारी, उन्हें, अल्लाह ने सौंपी थी जो उनके, उनके दोस्तों व औलाद के क़त्ल होने और अहले हरम के असीर होने के बाद पूरी हुई।हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.), हज़रत अली (अ.) और हज़रत इमाम हसन (अ.) ने पहले ही हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की शहादत के बारे में अपने अपने बयान दे चुके थे। यहाँ तक कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की विलादत (जन्म) के वक़्त ही हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) ने उनकी शहादत का ज़िक्र कर दिया था।
हज़रत इमाम हुसैन (अ.) इल्मे इमामत से जानते थे कि इस सफ़र का अन्त शहादत पर है। लेकिन वह, उन लोगों में से नही थे जो अल्लाह के हुक्म के सामने अपनी ज़िन्दगी को अहमियत देते हैं। या अपने बीवी बच्चों के क़ैदी बनने के वहम को अपने दिल में जगह देते हैं। बल्कि वह तो ऐसे थे जो परेशानियों को करामत औरशहादतको सआदत (कल्याण) समझते हैं। (उन पर हमेशा अल्लाह का सलाम व रहमत रहे।) कर्बला में, हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के शहीद होने की ख़बर इस्लामी समाज में इस तरह मशहूर थी कि आम लोग भी इस सफ़र के नतीजे को जानते थे। क्योंकि वह इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हज़रत अली (अ.) व ज़रत इमाम हसन (अ.) और सदरे इस्लाम के दूसरे बुज़ुर्गों से इस बारे में सुन चुके थे। इस वजह से हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के इस सफ़र ने आम लोगों के ज़हन में इस मुक़ाबेले व शहादत के एहतेमाल को और पक्का कर दिया। ख़ास तौर पर आपके इस जुमले ने जो आपने रास्ते में कई बार कहा कि "जो लोग हमारे लिए अपनी जान क़ुर्बान करके अल्लाह से मुलाक़ात करने लिए तैयार हों, वही हमारे साथ चलें। " अतः कुछ लोगों के दिल में यह वहम पैदा हुआ कि हज़रत को इस सफ़र से रोका जाये। वह इस बात से बेख़बर थे कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.), इमाम व पैग़म्बर (स.) के जानशीन है और अपनी ज़िम्मेदारी को दूसरों से ज़्यादा जानते हैं। जो ज़िम्मेदारी अल्लाह ने उन्हें सौंपी है, वह उससे हरगिज़ जान नही बचायेंगे। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) अपने चारों तरफ़ जमा इन तमाम फ़िक्रों व नज़रियों के होते हुए भी अपने इरादे पर अटल रहे और उनके इरादे में ज़र्रा बराबर भी बदलाव नही आया। अन्ततः वह गये और शहीद हो गये। वह तन्हा शहीद नही हुए बल्कि उनके वह साथी व बेटे भी शहीद हुए, जिनमें से हर एक इस्लाम का एक जग मगाता सितारा था। उन्होंने अपने ख़ून को कर्बला की गर्म रेत पर बहा दिया ताकि दुनिया अच्छी तरह समझले कि यज़ीद प़ैगम्बरे इस्लाम (स.) का जनशीन नही है। बनी उमैया इस्लाम से और इस्लाम बनी उमैया से अलग है। क्या आपने कभी इस बारे में सोचा है कि अगर हुसैन कर्बला में शहीद न हुए होते और लोग यज़ीद को पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन समझते रहते और उनको यज़ीद के दरबार और उसकी व उसके दरबारियों की मौज मस्ती की ख़बरें मिलती तो वह इस्लाम से किस हद तक नफ़रत करने लगते। क्योंकि वह इस्लाम जिसमें पैग़म्बर(स.) का ख़लीफ़ा यज़ीद हो हक़ीक़त में नफ़रत के ही क़ाबिल है। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के हरम क़ैदी बने ताकि इस शहादत के पैग़ाम कोलोगों तक पहुंचायें। हमने पढ़ा व सुना है कि उन्होंने क़ैदी बन कर शहरो, दरबारो, बज़ारो, मस्जिदों ख़ास तौर पर इब्ने ज़्याद व यज़ीद के दरबारों में अपनी ज़बान को खोला, अपने पैग़ाम को पहुँचाया और बनी उमैया के चेहरे पर पड़ी इस्लाम की नक़ाब को उतार कर फ़ेंका दिया और दुनिया पर साबित कर दिया कि यज़ीद एक कुत्ते बाज़ व शराबी इंसान है। वह ख़िलाफ़त के लायक़ नही है,वह जिस तख़्त पर बैठा है, वह उसकी जगह नही है। अहले हरम की तक़रीरों ने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) शहादत के पैग़ाम को पूरा किया। इन तक़रीरों ने लोगों के दिलों में वह तूफ़ान उठाया कि यज़ीद का नाम हमेशा के लिए एक गाली बन गया और उसकी तमाम शैतानी तमन्नाए मिट्टी में मिल गईं। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की अज़ीम शहाद के तमाम नतीजों को समझने के लिए इंसान को बहुत गहरी नज़र की ज़रूरत है। शहादत के वक़्त से आब तक, तमाम शिया व अहले बैत (अ.) के चाहने वाले और तमाम वह इंसान जिनमें इंसानी शराफ़त पाई जाती है, वह हर साल हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की शहादत की तारीख़ पर काले कपड़े पहन कर उनकी अज़ादारी करते हैं और उनकी मुसीबतों पर अपने आँसू बहा कर उनसे अपनी मुहब्बत को ज़ाहिर करते हैं। मासूम इमामों ने कर्बला के वाक़िये को ज़िन्दा रखने के लिए ख़ास कोशिशे की हैं। इसके अलावा कि वह ख़ुद उनकी क़ब्र की ज़ियारत के लिए जाते थे और अज़ादारी करते थे, अज़ादारी की फ़ज़ीलत और उन शहीदों के ग़म में रोने के बारे में भी हदीसें बयान करते थे। अबू अमारा का कहना है कि " मैं एक दिन छटे इमाम हज़रत सादिक़ (अ.) के पास गया तो उन्होंने कहा कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के मसायब के बारे में मुझे कुछ शेर सुनाओ। जब मैंने शेर पढ़ने शुरू किये तो इमाम के रोने लगे,मैं पढ़ता गया और इमाम रोते रहे वह इतना रोये कि रोने की आवाज़ घर से बाहर जाने लगी। जब मैंने शेर पढ़ना बन्द किया तो इमाम (अ.) ने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) के लिए मरसिया पढ़ने, और उन पर रोने की फ़ज़ीलत वसवाब को बयान किया।" हज़रत इमाम सादिक़ (अ.) से ही रिवायत है कि " किसी भी मुसीबत पर रोना व बेताब होना बेहतर नही है, मगर हज़रत इमाम हुसैन बिन अली (अ.) पर रोना, कि इसके लिए बहुत सवाब है।" पांचवे इमाम,बाक़िरुल उलूम हज़रत इमाम मुहम्मदबाक़िर (अ.) ने अपने एकसहाबी मुहम्मद बिन सुलैम से कहा कि " हमारे शियों से कहो कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत के लिए जायें, क्योकि जो भी मोमिन हमारी इमामत का क़ायल है, उसके लिए हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की क़ब्र की ज़ियारत ज़रूरी है। " हज़रत इमाम सादिक़ (अ.) ने कहा कि "बेशक हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की क़ब्र की ज़ियारत तमाम कामों से अफ़जल (श्रेष्ठ) है।" क्योंकि यह ज़ियारत, हक़ीक़त में एक बहुत बड़ा स्कूल है, जो लोगों को ईमान व अमल सिखाता है और इंसान की रूह को पाकी व मलकूत व क़ुर्बानी की तरफ़ ले जाता है।हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की अज़ादारी करने, उन पर रोने और उनकी क़ब्र की ज़ियारत करने की बहुत अहमियत है, लेकिन यह याद रहे कि तन्हा इस रोने, ज़ियारत और अज़ादारी पर को काफ़ी नही समझना चाहिए, बल्कि यह सब हमें दीन दारी, क़ुर्बानी, और आसमानी क़ानून की हिफ़ाज़त सिखाती हैं और इन सब का इसके अलावा कोई दूसरा मक़सद नही है। दरबारे हुसैनी से हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत इंसानियत सीखना और ग़ैरे ख़ुदा से अपने दिल को ख़ाली करना है। वरना अगर हम सिर्फ़ ज़ाहिर को देख़ें तो हुसैनियत का मुक़द्दस मक़सद ही ख़त्म हो जाता है।
हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का अख़लाक़ व किरदार हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की 56 साल की ज़िन्दगी में हमें दखने को मिलता है कि वह हमेशा पाकीज़गी, अल्लाह की इबादत और हज़रत मुहम्मद (स.) की रिसालत को फैलाने और इस्लाम के बहुत अहम मसाइल को समझाने में लगे रहे। हम यहाँ पर उनकी ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को लिख रहे हैं जो हमारे सामने मौजूद हैं। उन्हें नमाज़ पढ़ने, अल्लाह से दुआ करने, क़ुरआन पढ़ने और इस्तग़फ़ार करने का बहुत शौक़ था। यहाँ तक कि उन्होंने यह काम अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी रात में भी किये। वह कभी कभी रात दिन में एक सौ रकअत नमाज़ पढ़ते थे। उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी भी नमाज़ व दुआ को नही छोड़ा। हमने पढ़ा है कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी रात में दुश्मनों से इस लिए मोहलत माँगी ताकि अपने अल्लाह की इबादत कर सकें। उन्होंने कहा कि " अल्लाह जानता है कि मैं नमाज़ पढ़ने, क़ुरान की तिलावत करने, दुआ माँगने और ज़्यादा इस्तग़फ़ार करने को बहुत पसंद करता हूँ।" उन्होंने कई बार पैदल ख़ाना ए काबा जाकर हज किया।इब्ने असीर ने अपनी किताब " असदुल ग़ाब्बा" में लिखा है कि हुसैन बहुत ज़्यादा नमाज़ पढ़ते और रोज़ा रखते, हज को जाते, सदक़ा देते और तमाम अच्छे कामों को करते थे। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की ज़ात इतनी बलन्द थी कि जब वह अपने भाई हज़रत इमाम हसन(अ.) के साथ पैदल हज के लिए जाते थे तो उनके एहतेराम में इस्लाम के बड़े बड़े लोग अपनी सवारियों से उतर जाते थे और उनके साथ पैदल चलते थे। पूरा समाज हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का एहतेराम इस लिए करता था कि वह हमेशा समाज में रहते थे आम लोगों के साथ उठते बैठते थे और उनसे कभी बचने की कोशिश नही करते थे। वह भी दूसरों की तरह समाज के दुख दर्द में शामिल रहते थे और इससे भी बढ़ कर यह कि उनके सच्चे व पक्के ईमान ने उन्हें लोगों के दुख सुख का साथी बना दिया था। वरना न उनके पास कोई आली शान महल था और न नौकर चाकर व फ़ौज, वह आने जाने वालों के लिए कभी अपने दर को बन्द नही करते थे और न अपने लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के हरम को ख़ाली करते थे। उनके समाजी अख़लाक़ का एक नमूना यह रिवायत है एक दिन वह एक ऐसी जगह से गुज़रे, जहाँ कुछ फ़क़ीर अपनी चादरे बिछाये बैठे थे और रोटी के सूखे टुकड़े खा रहे थे। उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की तवाज़ो की और उन्होंने क़बूल कर लिया। वह उनके साथ बैठ कर वह सूखी रोटी खाने लगे और कहा कि अल्लाह तकब्बुर करने वालों को पसंद नही करता। इसके बाद कहा कि मैंने तुम्हारी दावतको क़बूल किया है इस लिए तुम मेरी दावतको क़बूल करो। उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की दावतको क़बूल किया और उनके साथ उनके घर आये। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने हुक्म दिया कि घर में जो भी ख़ाने की चीज़ें मौजूद हों वह इनके लिए लाई जाये। उनके लिए खाने पीने का सामान लाया गया। इस तरह हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने अपने इस काम से समाज को इंसान से मुहब्बत व तवाज़ों का सबक़ सिखाया। शुऐब बिन अब्दुर्रहमान ख़ज़ाई का कहना है कि "जब हज़रत इमाम हुसैन (अ.) शहीद हो गये तो उनकी कमर पर पैंठ के निशान देखे गये जब इसबारे में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) से पूछा गया तो इन्होंने जवाब दिया कि यह निशान इस वजह से पड़े कि मेरे बाबा रात को अपनी कमर पर ख़ाने के थैले लाद कर बेवा औरतों और यतीम बच्चों के घर पहुंचाते थे।" हज़रत इमाम हुसैन (अ.) को मज़लूमों की मदद व हिमायत का कितना शौक़ था इसका अंदाज़ा उरैनब और उसके शौहर अब्दुल्लाह बिन सलाम के क़िस्से से लगाया जासकता है। इस क़िस्से को हम मुख़तसर तौर पर (संक्षेप में) यहाँ लिख रहे हैं । जब मुआविया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो उसके बाद से यज़ीद के पास मौज मस्ती की सब चीज़ें मौजूद थीं। पैसा, कनीज़े, नाचने वालियाँ व.... मगर इन सब के होते हुए उसके सर पर हवस सवार हुई और उसकी आँखे एक पाकदामन व शादी शुदा औरत से लड़ गईं। मुआविया इसके बजाये कि वह इस बुरी और शर्म की बात पर यज़ीद को डाँटता डपटता, झूठ और धोके बाज़ी का सहारा लेकर उस पाकदामन मुसलमान औरत को उसके शौहर से जुदा करके, उसे यज़ीद के नजिस बिस्तर पर लाने के लिए कोशिश करने लगा। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) को इस बात का पता चल गया वह वह इस बुरे व घिनौने काम के मुकाबेले के लिए खड़े हो गये और मुआविया की पूरी स्कीम को तहस नहस कर दिया और इस्लाम के एक क़ानून के तहत उसपाकदामन औरत को उसके शौहर अब्दुल्लाह बिन सलाम को पलटा दिया। इस तरह उन्होंने एक मुसलमान औरत की तरफ़ बढ़ते हुए, यज़ीद के नापाक हाथों को रोक दिया। इस वाक़िये से जहाँ उनकी ग़ैरत व हिम्मत ज़ाहिर होती है वहीं उनके, इस्लामी समाज में मुसलमान औरतों की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त के जज़बे का भी पता चलता है। यह वाक़िया इतिहास में औलादे अली (अ.) के गर्व और बनी उमैया की नीचता व ज़ुल्म के लिए हमेशा बाक़ी रहेगा। आलाई अपनी किताब " समुल मअना " हम इंसानों के इतिहास में कुछ ऐसे इंसान को देखते हैं जिनमें से हर एक ने अपनी अज़मत (श्रेष्ठता) को एक पहलु से विश्व व्यापी बनाया है। किसी ने बहादुरी में नाम कमाया तो किसी ने ज़ोह्द में सिक्का जमाया। किसी ने सख़ावत (दानशीलता) में झंडे गाड़े.......... लेकिन हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की शख़सियत ऐसी है ज़िनकी ज़िन्दगी का हर पहलु एक ख़ास अज़मत लिये हुए है। ऐसा लगता है सारी अज़मतें उनकी ज़ात में आकर सिमट गई हैं। हाँ! जो इंसान हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) की नबूवत का वारिस हो, जो इंसान अपने बाबा हज़रत अली (अ.) के अद्ल व इंसाफ़ का वारिस हो, जो इंसान अपनी माँ हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) की फ़ज़ीलत व जलाल का वारिस हो, भला वह इंसानी अज़मत व ख़ुदाई फ़ज़ीलत का नमूना क्यों नही बनेगा। उन पर हज़ारों दरूद व सलाम हो, हमें चाहिए कि हम उन्हें अपनी ज़िन्दगी के लिए नमूना व आदर्श बनायें। हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की ज़िन्दगी, उनकी शहादत, उनका बात चीत का अंदाज़ और उनके किरदार का हर पहलु न केवल यह कि इतिहास के एक महान इंसान को हमारे लिए पेश करता है, बल्कि वह तमाम फ़ज़ीलतों, तमाम बड़ाईयों, तमाम क़ुर्बानियों, वह अल्लाह को चाहने व अल्लाहको पाने का आईना है। वह तन्हा इंसानियत की सआदत (कल्याण) का ज़ामिन बन सकते है। उनकी ज़िन्दगी व शहाद, दोनों ने ही इंसान की मानवियता व फ़ज़ीलत (आध्यात्म व उच्चता) को महान बनाया है

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