Thursday, January 17, 2008

क़ुरआने मजीद और अख़लाक़ी तरबीयत

अख़लाक़ उन सिफ़ात और अफ़आल को कहा जाता है जो इंसान की ज़िन्दगी में इस क़दर रच बस जाते हैं कि ग़ैर इरादी तौर पर भी ज़हूर पज़ीर होने लगते हैं। बहादुर फ़ितरी तौर पर मैदान की तरफ़ बढ़ने लगता है और बुज़दिल तबीयी अंदाज़ से परझाईयों से डरने लगता है। करीम का ख़ुद बख़ुद जेब की तरफ़ बढ़ जाता है और बख़ील के चेहरे पर साइल की सूरत देख कर हवाईयाँ उड़ने लगती हैं।
इस्लाम ने ग़ैर शुऊरी और ग़ैर इरादी अख़लाक़ीयात को शुऊरी और इरादी बनाने का काम अंजाम दिया है और उसका मक़सद यह है कि इंसान उन सिफ़ात को अपने शुऊर और इरादे के साथ पैदा करे ताकि हर अहम से अहम मौक़े पर सिफ़त उसका साथ दे वर्ना अगर ग़ैर शुऊरी तौर पर सिफ़त पैदा भी कर ली है तो हालात के बदलते ही उसके मुतग़य्यर हो जाने का ख़तरा रहता है। मीसाल के तौर पर उन तज़किरों को मुलाहेज़ा किया जाये जहा इस्लाम ने साहिबे ईमान की अख़लाक़ी तरबीयत का सामान फ़राहम किया है और यह चाहा है कि इंसान में अख़लाक़ी जौहर बेहतरीन तरबीयत और आला तरीन शुऊर के ज़ेरे असर पैदा हो।
क़ुव्व्ते तहम्मुल:
सख़्त तरीन हालात में क़ुव्वते बर्दाश्त का बाक़ी रह जाना एक बेहतरीन अख़लाक़ी सिफ़त है लेकिन यह सिफ़त बअज़ अवक़ात बुज़दिली और नाफ़हमी की बेना पर पैदा होती है और बअज़ अवक़ात मसाअब व मुश्किलात की सही संगीनी के अंदाज़ा न करने की बुनियाद पर। इस्लाम ने चाहा है कि यह सिफ़त मुकम्मल शुऊर के साथ पैदा हो और इंसान यह समझे कि क़ुव्वते तहम्मुल का मुज़ाहेरा उसका अख़लाक़ी फ़र्ज़ है जिसे बहरहाल अदा करना है। तहम्मुल न बुज़दिली और बेग़ैरती की अलामत बनने पाये और न हालात के सही इदराक के फ़ोक़दान की अलामत क़रार पाये।
इरशाद होता है:
الَّذِينَ إِذَا أَصَابَتْهُم مُّصِيبَةٌ قَالُواْ إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعونَ أُولَئِكَ عَلَيْهِمْ صَلَوَاتٌ مِّن رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُهْتَدُونَ إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَآئِرِ اللّهِ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا وَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَإِنَّ اللّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ (बक़रा 156-158)
“यक़ीनन हम तुम्हारा इम्तेहान मुख़्तसर से ख़ौफ़ और भूक और जान, माल और समरात के नक़्स के ज़रीये लेगें और पैग़म्बर आप सब्र करने वालों को बशारत दे दें जिनकी शान में यह है कि जब उन तक कोई मुसीबत आती है तो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिये हैं और उसी की बारगाह में पलट कर जाने वाले हैं। उन्ही अफ़राद के लिये परवरदिगार की तरफ़ से सलवात व रहमत है और यही हिदायत याफ़्ता लोग हैं।”
आयते करीमा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआने मजीद क़ुव्वते तहम्मुल की तरबीयत देना चाहता है और मुसलमान को हर तरह के इम्तेहान के लिये तैयार करना चाहता है और फिर तहम्मुल को बुज़दिली से अलग करने के लिये إِنَّا لِلّهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعونَ तालीम देता है और नक़्से अमवाल व अनफुस को ख़सारा तसव्वुर करने के जवाब में सलवात व रहमत का वादा करता है ताकि इंसान हर माद्दी ख़सारा और नुक़सान के लिये तैयार रहे और उसे यह अहसास रहे कि माद्दी नुक़सान, नुक़सान नही है बल्कि सलवात और रहमत का बेहतरीन ज़रीया है। इंसान में यह अहसास पैदा हो जाये तो वह अज़ीम क़ुव्वत तहम्मुल का हामिल हो सकता है और उसमें यह अख़लाक़ी कमाल शुऊरी और इरादी तौर पर पैदा हो सकता है और वह हर आन मसाइब का इस्तेक़बाल करने के लिये अपने नफ़्स को आमादा कर सकता है।
“الَّذِينَ قَالَ لَهُمُ النَّاسُ إِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُواْ لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ إِيمَاناً وَقَالُواْ حَسْبُنَا اللّهُ وَنِعْمَ الْوَكِيلُ”(सूरह आले इमरान आयत 174-175)
“वह जिनसे कुछ लोगों ने कहा कि दुशमनों ने तुम्हारे लिये बहुत बड़ा लश्कर जमा कर लिया है तो उनके ईमान में और इज़ाफ़ा हो गया और उन्होने कहा कि हमारे लिये ख़ुदा काफ़ी है और वही बेहतरीन मुहाफ़िज़ है जिसके बाद वह लोग नेमत व फ़ज़्ले इलाही के साथ वापस हुए और उन्हे किसी तरह की तकलीफ़ नही हुई और उन्होने रेज़ाए इलाही का इत्तेबाअ किया, और अल्लाह बड़े अज़ीम फ़ज़्ल का मालिक है।”
आयते करीमा के हर लफ़्ज़ में एक नई अख़लाक़ी तरबीयत पायी जाती है और उससे मुसलमान के दिल में इरादी अख़लाक़ और क़ुव्वते बर्दाश्त पैदा करने की तलक़ीन की गयी है। दुश्मन की तरफ़ से बेख़ौफ़ हो जाना शुजाअत का कमाल है लेकिन حَسْبُنَا اللّهُ कह कर बेख़ौफ़ी का ऐलान करना ईमान का कमाल है। बैख़ौफ़ होकर नामुनासिब और मुतकब्बेराना अंदाज़ इख़्तेयार करना दुनियावी कमाल है और रिज़ावाने इलाही की इत्तेबाअ करते रहना क़ुरआनी कमाल है। क़ुरआने मजीद ऐसे ही अख़लाक़ीयात की तरबीयत करना चाहता है और मुसलमान को इसी मंजिल कमाल तक ले जाना चाहता है।
“وَلَمَّا رَأَى الْمُؤْمِنُونَ الْأَحْزَابَ قَالُوا هَذَا مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَصَدَقَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَمَا زَادَهُمْ إِلَّا إِيمَانًا وَتَسْلِيمًا”(सूरह अहज़ाब आयत 73)
“और जब साहिबे ईमान नें क़ुफ़्फ़ार के गिरोहों को देखा तो बरजस्ता यह ऐलान कर दिया कि यही वह बात है जिसका ख़ुदा व रसूल ने हम से वादा किया था और उनकी वादा बिल्कुल सच्चा है और इस इज्तेमाअ से उनके ईमान का और तज़बा ए तसलीम में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया”
मुसीबत को बर्दाश्त कर लेना एक इंसानी कमाल है। लेकिन इस शान से इस्तिक़ाबाल करना कि गोया इसी का इंतेज़ार कर रहे थे और फिर उसको सदाक़त ख़ुदा व रसूल की बुनियाद क़रार देकर अपने ईमान व तसलीम में इज़ाफ़ा कर लेना वह अख़लाक़ी कमाल है जिसे क़ुरआन मजीद अपने मानने वालों में पैदा कराना चाहता है।
“وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيٍّ قَاتَلَ مَعَهُ رِبِّيُّونَ كَثِيرٌ فَمَا وَهَنُواْ لِمَا أَصَابَهُمْ فِي سَبِيلِ اللّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا اسْتَكَانُواْ وَاللّهُ يُحِبُّ الصَّابِرِينَ”(आले इमरान 147)
“और जिस तरह बअज़ अंबीया के साथ बहुत से अल्लाह वालों ने जिहाद किया है और उसके बाद राहे ख़ुदा में पड़ने वाली मुसीबतों ने न उनकी कमज़ोरी पैदा की और न उनके इरादों में ज़ोअफ़ पैदा हुआ हो और न उनमें किसी तरह की जिल्लत का अहसास पैदा दुआ कि अल्लाह सब्र करने वालों को दोस्त रखता है।”
आयत से साफ़ वाज़ेह होता है कि इस वाक़ेआ के ज़रीये ईमान वालों को अख़लाक़ी तरबीयत दी जा रही है और उन्हे हर तरह के ज़ोअफ़ व ज़िल्लत से इसलिये अलग रखा जा रहा है कि उनके साथ ख़ुदा है और वह उन्हे दोस्त रखता है और जिसे ख़ुदा दोस्त रखता है उसे कोई ज़लील कर सकता है और न बेचारा बना सकता है। यही इरादी अख़लाक़ है जो क़ुरआनी तालीमात की तुर्रा ए इम्तेयाज़ है और जिससे दुनिया के सारे मज़ाहिब और अक़वाम बे बहरा हैं।
“وَعِبَادُ الرَّحْمَنِ الَّذِينَ يَمْشُونَ عَلَى الْأَرْضِ هَوْنًا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ الْجَاهِلُونَ قَالُوا سَلَامًا”(सूरह फ़ुरक़ान आयत 64)
“और अल्लाह के बंदे वह हैं जो ज़मीन पर आहिस्ता चलते हैं और जब कोई जाहिलाना अंदाज़ से उनसे ख़िताब करता है तो उसे सलामती का नाम का पैग़ाम देते है। यही वह लोग है जिन्हे उनके सब्र की बेना पर जन्नत में ग़ुरफ़े दिये जायेगें और तहय्यत और सलाम की पेशकश की जायेगी।”
इस आयत में भी साहिबाने ईमान और इबादुर्रहमान की अलामत क़ुव्वते तहम्मुल व बर्दाश्त को क़रार दिया गया है, लेकिन قَالُوا سَلَامًا कहकर उसकी इरादीयत और शुऊरी कैफ़ियत का इज़हार किया गया है कि यह सुकूत बर बेनाए बुज़दिली व बेहयाई नही है बल्कि उसके पीछे एक अख़लाक़ी फ़लसफ़ा है कि वह सलामती का पैग़ाम देकर दुशमन को भी राहे रास्त पर लाना चाहते हैं और उसकी जाहिलाना रविश का इलाज करना चाहते हैं।
वाज़ेह रहे कि इन तमाम आयात में सब्र करने वालों की जज़ा का ऐलान तरबीयत का एक ख़ास अंदाज़ है कि इस तरह क़ुव्वते तहम्मुल बेकार न जाने पाये और इंसान को किसी तरह के ख़सारे और नुक़सान का ख़्याल न पैदा हो बल्कि मज़ीद तहम्मुल व बर्दाश्त का हौसला पैदा हो जाये कि इस तरह ख़ुदा की मईयत, मुहब्बत, फ़ज़्ले अज़ीम और तहय्यत व सलाम का इस्तेहक़ाक़ पैदा हो जाता है जो बेहतरीन राहत व आराम और बेहद व बेहिसाब दौलत व सरवत के बाद भी नही हासिल हो सकता है।
क़ुरआने मजीद का सबसे बड़ा इम्तेयाज़ यही है कि वह अपने तालीमात में इस उन्सूर को नुमायाँ रखता है और मुसलमान को ऐसा बाअख़लाक़ बनाना चाहता है जिसके अख़लाक़ीयात सिर्फ़ अफ़आल, आमाल और आदात न हों बल्कि उनकी पुश्त पर फ़िक्र, फ़लसफ़ा, अक़ीदा और नज़रिया हो और वह अक़ीदा व नज़रिया उसे मुसलसल दावते अमल देता रहे और उसके अख़लाक़ीयात को मज़बूत से मज़बूत बनाता रहे।
जज़्बा ए ईमानी:
क़ुव्वते तहम्मुल के साथ क़ुरआने मजीद ने ईमानी जज़्बात के भी मुरक़्के पेश किये हैं जिनसे यह बात वाजेह हो जाती है कि वह तहम्मुव हिल्म को सिर्फ़ मन्फ़ी हदों तक नही रखना चाहता है बल्कि मसाइब व आफ़ात के मुक़ाबले में इसे एक मुस्बत रुख़ देना चाहता है।

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